बाँटना सही अर्थ मे साधक का जीवन

✿  जो कुछ ज्ञान मिला है, वह बाँटने के कारण सदैव हमारा चित्त दूसरे को देने की ओर होता है। हम सदैव दाता रहते हैं, याचक नहीं। और यह देने की क्षमता ही हमको विकसित करती है। 

✿   प्रत्येक साधक को अपने-आपको परमात्मारूपी वृक्ष की एक छोटी-सी टहनी समझना चाहिए और परमात्मारूपी वृक्ष से जो भी मिलता है, उसे बाँटना चाहिए।

✿   बाँटना ही सही अर्थ में साधक का जीवन है। जो बाँट रहा है, वही सही अर्थ में जुड़ा हुआ है और जो जुड़ा हुआ है, वही सही अर्थ में जीवित है।

✿   मनुष्य-जीवन का सारा रहस्य इस बाँटने में छुपा हुआ है। आप किसे बाँट रहे हो कौन ग्रहण कर रहा है कितना ग्रहण कर रहा है, वह उस ज्ञान का सदुपयोग करेगा या नहीं करेगा, ग्रहण करनेवाला योग्य व्यक्ति है या नही है, ये देखाना भी साधक का क्षेत्र नहीं है क्योंकि साधक यह ज्ञान उस व्यक्ति के विकास के लिए नहीं दे रहा है। वह साधक वह ज्ञान दूसरे को इसीलिए दे रहा है कि वह जितना अधिक ज्ञान बाँटेगा, उतना अधिक उसे प्राप्त होगा। साधक स्वयं की ही आध्यात्मिक प्रगति के लिए दे रहा है। और साधक वह ज्ञान देकर सामनेवाले व्यक्ति पर उपकार नहीं कर रहा, वह अपने स्वयं पर उपकार कर रहा है।

✿   सदैव साधक को भी परमात्मारूपी वृक्ष की वह टहनी बनना चाहिए जिस टहनी पर सैकड़ों छोटी टहनियाँ और हजारों पत्ते निर्भर हैं। परमात्मा से प्राप्त ज्ञान को आपके माध्यम से हजारों लोगों तक पहुँचना चाहिए।

✿  और यह सही भी है, ऐसा मुझे भी लगा। एक मनुष्य की आवश्यकता सीमित है। उससे अधिक से उसे प्रसन्नता व खुशी नहीं मिल सकती। फिर अगर वह अधिक खुशी पाना चाहता है, तो उसे जो मिला, वह  बाँटने में ही आनंद है। 

✿   एक व्यक्ति का भोजन ४ रोटी है। अगर उसे १०० रोटियाँ दे दी जाएँ तो इसे अधिक रोटियों से अधिक प्रसन्नता नहीं होगी, वे भले २५ गुना अधिक रोटियाँ हैं। तो २५ गुना अधिक आनंद मिलना चाहिए, तो वह केवल रोटी से संभव नहीं है। उन रोटियों के साथ अलग-अलग माध्यम भी मिलते हैं। और उन अलग-अलग लोगो रूपी माध्यमों को आप रोटियाँ बाँटते हैं। तो दूसरों को बाँटकर, दूसरों को खिलाकर, दूसरों का पेट भरकर ही हमें अधिक आनंद प्राप्त हो सकेगा। रोटियाँ निर्जीव हैं, मनुष्य की भूख सजीव है। जब तक भूखे व्यक्ति आपको नहीं मिलेंगे, तब तक वे निर्जीव रोटियाँ आपको आनंद नहीं दे सकती हैं। क्योंकि केवल दूसरे व्यक्ति मिलना ही काफी नहीं है, भूखे व्यक्ति मिलना आवश्यक है। तभी वे व्यक्ति उस भूख के कारण आपकी दी हुई रोटियाँ और आपको प्रसन्नता मिलेगी।

✿   उस दिन मैंने भी सोचा, अगर परमात्मा से कभी मुझे ज्ञानरूपी रोटियाँ अधिक मात्रा में मिलती हैं, तो मैं भी मेरे जीवन में उन भूखे व्यक्तियों की खोज करूँगा, उन्हें ढूँढूँगा और प्रेम से परमात्मा की ज्ञानरूपी रोटी उन्हें खिलाऊँगा और आत्मा-आनंद प्राप्त करूँगा। क्योंकि आवश्यकता से अधिक ज्ञान की मुझे भो कोई आवश्यकता नहीं है, फिर उस ज्ञान को बाँटने में ही सार्थकता है।

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  श्री शिवकृपानंदजी स्वामी
    हिमालय का समर्पण योग 
  भाग - १, पृष्ठ - २८, २९, ३०
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           @gurutattva

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