गुरु का दरबार
सब कार्य छोड़कर भी पहले
साधकों को समय देता था।
मेरा भाव यह था, "मेरा घर,
केवल घर नही है, यह तो
❛ गुरु का दरबार ❜ है।"
यहाँ कोई भी, कभी भी
आ सकता है। जो साधक
आया है, वह गुरु की इच्छा
से आया है, क्योंकि गुरु
की इच्छा के बगैर हमारे
यहाँ कोई नही आ सकता है।
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श्री शिवकृपानंदजी स्वामी
हिमालय का समर्पण योग
भाग ५, पृष्ठ ११८
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