श्री मंगल मूर्ति - 1
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🔅 श्री मंगल मूर्ति - 1🔅
साधक का प्रश्न (14) :
परमप्रिय सद्गुरु,आपने कहा है - जीवंत सद्गुरु के बिना आत्मसाक्षात्कार नहीं हो सकता | तो क्या मूर्ति की मदद से आत्मसाक्षात्कार हो सकता है ?
स्वामीजी का उत्तर :
आत्मसाक्षात्कार होगा, आप प्रश्न पूछोगे, प्रश्न के उत्तर देगी | माने, जो मैं करता हूँ सब, जो मेरे से प्राप्त करते हो, वह सब उससे प्राप्त होगा | सिर्फ मैं इधर से उधर घूम सकता हूँ, वह नहीं घूम सकती, बस इतना ही अंतर है | और कम से कम कुछ लोग तो मेरा पीछा छोड़ेंगे |
दूसरा, क्या है, मूर्ति भी झुकने का निमित्तमात्र है | जैसे हम बोलते हैं ना, मैं बोलता हूँ - सर्वत्र परमेश्वर है | सर्वत्र परमेश्वर है, तो मूर्ति में भी यह परमेश्वर है | तो किसी न किसी परमेश्वर के स्वरूप को आप मानकर झुको, यही महत्वपूर्ण है | देखिए, मेरे लिए तो एक पत्थर को चैतन्य देना और मूर्ति को चैतन्य देना समान था | एक साधारण, पड़े हुए पत्थर को भी उतना ही वाइब्रेशन दे सकता हूँ, जितना मूर्ति को देख सकता हूँ | लेकिन आपकी दृष्टि से अलग है | रिसिविंग आपकी मूर्ति से होगी, पत्थर से नहीं होगी | जो समझ लो कि अभी आपका खाना मैं वाईब्रेट करूंगा कुटीर के अंदर...वाईब्रेट किया और आपको दिया | "हाँ ठीक है, स्वामीजी ने वाईब्रेट किया, ले लिया |" लेकिन आपके सामने अगर थाली है, प्रत्येक को वाइब्रेट कर-करके दूँ, तो उसमें आपकी रिसिविंग बढ़ जाएगी ना ! जबकि चैतन्य दोनों में सेम है, एक जैसा है, लेकिन आपकी ग्रहण करने की क्षमता अधिक हो जाती है | तो उसी प्रकार से मूर्ति का है | मूर्ति आपके लिए है, मेरे लिए नहीं है | मेरे लिए तो पत्थर और मूर्ति दोनों एक जैसे हैं | दोनों को एक जैसा... और मेरी इच्छा स्थान की थी, मूर्ति तो मेरे गुरु की कल्पना है |
-मधुचैतन्य,
अप्रैल,मई,जून-2007
चैतन्य धारा
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