प्रकृति का अनुभव
मौसम बड़ा ही सुहावना, खुशनुमा तथा गर्मीला था और आसमान भी साफ था! शाम ५ बजे के करीब हमने पूज्य स्वामीजी एवं गुरुमाँ के साथ सैर हेतु समुद्रतट पर जाना निश्चित किया। एक और साधिका, लता मगन भी हमारे साथ थी।
समुद्र किनारे चलते-चलते हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ अमश्लोटी नदी हिन्द महासागर से मिलती है। हमने कुछ देर नीले आसमान तले बैठकर शांत एवं मनमोहक प्रकृति के सान्निध्य का आनंद लिया तथा पुनः विला की ओर प्रस्थान करने लगे।
वापस लौटते समय, रास्ते में स्वामीजी को एक स्थान अच्छा लगा और उन्होंने हम सभी को वहाँ थोड़ी देर बैठने को कहा। हम सब वहाँ बैठ गए और कुछ देर पश्चात स्वामीजी उठकर समुद्र की ओर जाने लगे। वे किनारे पर जाकर खड़े रह गए तथा अपनी हथेलियों को समुद्र के समक्ष खुली रखकर उन्होंने अपना आभामण्डल खोला।
लहरें ऊँची उठने लगीं और ठीक उनके चरणों के पास आकर शांत होकर धीरे से उनके चरणों को स्पर्श करने लगीं। स्वामीजी के खड़े रहते ही, हमने देखा कि आसमान का रंग बदलने लग गया तथा बादलों की भी हलचल शुरू हो गई। लहरों की तीव्रता बढ़ गई तथा वे और ऊँची उठने लगीं किन्तु प्रत्येक लहर स्वामीजी तक पहुँचने के ठीक पहले थम जाती और धीरे से उनके चरण स्पर्श करती। हमने यह भी देखा कि कोई लहर स्वामीजी के चरणों के पीछे नहीं जा पा रही थी। सभी लहरें थमकर स्वामीजी के सामने से, उनकी दाईं ओर से बाईं ओर मुड़ रही थीं ।
कुछ देर पश्चात, स्वामीजी वहाँ आए जहाँ हम बैठे थे और कहा कि हमें यहाँ से निकलना चाहिए क्योंकि शीघ्र ही बारिश होने वाली है। हालाँकि हम इसका कारण नहीं समझ पा रहे थे क्योंकि आज आसमान साफ था तथा बारिश के कोई आसार नहीं थे। हम सब वापस विला की ओर चलने लगे जो वहाँ से लगभग १०० मीटर की दूरी पर था। रास्ते में ही हमने देखा की बादल छाने लगे और २ मिनट में ही सारा आसमान मेघयुक्त हो गया तथा घना अंधेरा हो गया।
जब हम समुद्रतट से विला के प्रवेशद्वार तक पहुंचे तो हम कहाँ चल रहे हैं यह देखने के लिए हमें अपने सेलफोन की रोशनी की सहायता लेनी पड़ी।
२ ही घंटों के भीतर, जब हम बालकनी में भोजन कर रहे थे, तब बारिश होने लगी। मौसम में भारी बदलाव आया और रातभर जमकर बारिश हुई।
अगली सुबह, जब हम चाय पी रहे थे, स्वामीजी ने समझाया कि जब उन्होंने अपना आभामण्डल खोला था तो वातावरण ठंडा हो गया था और बादल भी करीब आ गए थे। उन्होंने आगे समझाया कि जब हम प्रकृति से एकरूप हो जाते हैं तो ऊर्जा बढ़ने के कारण वातावरण ठंडा हो जाता है। जब स्वामीजी ने अपना आभामण्डल खोला तो उनके आभामण्डल के भीतर का तापमान उसके आसपास के तापमान से कम था। उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाते हुए कहा कि बादल ठंडे वातावरण की ओर बढ़ते हैं। उदाहरण के रूप में, जब हम चम्मच का एक सिरा फकड़ते हैं और दूसरे सिरे को अग्नि पर रखते हैं तो कुछ समय के बाद हमने जो सिरा पकड़ा होता है, वह भी गरम हो जाता है; यह दिखाता है कि ऊष्मा ठंड की ओर फैलती है। इसी तरह, बादल भी ठंडे वातावरण की ओर आ गए थे। जैसे ही निकट के बादल भीतर आ गए, उनके पीछे पीछे वाले बादल भी चले आए।
स्वामीजी ने समझाया कि यह कोई चमत्कार नहीं है, यह उन परिवर्तनों का प्रमाण है जो वातावरण (प्रकृति) में हो सकते हैं जब मनुष्य प्रकृति के साथ समरस हो जाता है। मनुष्य प्रकृति में तभी समरस हो सकता है जब उसका अस्तित्व शून्य हो, जब वह पूर्णत: खाली एवं निखालस हो। प्रायः मनुष्य खूब विचार करता है, जबकि प्रकृति में कोई विचार नहीं होते।
शीतल दत्तानी, प्रवेश मगन, जयेश मगन
डरबन, दक्षिण अफ्रीका
१५ मार्च २०२०
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