सर्वोत्तम समर्पण
"मैं रोज ध्यान में "चैतन्यधाम" पहुंचता हूँ और वहां अपने साथ आज सुबह ४ बजे गुरु माँ को भी लेकर गया था। लेकिन वापस सिर्फ आपके लिए आया। पता नही आप मुजे कब मेरे घर जाने देंगे और कब तक इस 'धर्मशाला' में बारबार मुजे आना पड़ेगा? मैं वचन के कारण आपसे बंधा हूँ और आप माया के कारण इस संसार से बंधे हो। यानी मैं केवल तुमको प्रेम करता हूँ और तुम किसी और को और माया को प्रेम करते हो। मैं अपने आपको समुद्र जैसा पता हूँ जो एक स्थान पर स्थिर होकर प्रतीक्षा भर कर सकता है - कब सभी नदियाँ, जो मेरी हैं, मुजमे आकर मिलेगी? उन नदियों को जबरजस्ती मिला नही सकता। बस, उन नदियों की प्रतीक्षा मात्र कर सकता है।"
प्रतीक्षारत,
आपका समुद्र।
पूज्य शिवकृपानंद स्वामीजी,
"सर्वोत्तम समर्पण"
बाबा धाम
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