गुरुशक्ति को पत्र

हे गुरुदेव , जिस प्रकार 'कार्य क्षेत्र' को विकसित कर रहे हो , वैसे ही साधकों के हृदय को भी विकसित करो और उनके हृदय में सभी के लिए प्रेम भर दो। वे जैसा प्रेम मुझसे करते हैं , वैसा ही प्रेम वे प्रत्येक मनुष्य से करें। क्योंकि केवल 'बड़ी छत' बना कर क्या करना है ? उस बड़ी छत के निचे मेरे सारे बच्चे एकत्र होना चाहिये। मेरी स्थिति उस 'कुतिया' जैसी है जिसके आठ बच्चे होते हैं तो भी वह सभी बच्चों को एक साथ अपने स्तनों को चिपका कर ही रखना चाहती है।

वैसे ही *साधकों की संख्या लाखों की हो गयी पर मुझे मेरा प्रत्येक साधक प्यारा है , दुलारा है। मेरे सभी बच्चों को सुबुद्धि दे , सदबुद्धि दे ताकि मेरे जीवन का वे सही उपयोग ले सकें। मुझसे सही मार्गदर्शन पा सकें , मुझसे सही प्रश्न पूछ सकें , मुझसे शाश्वत कुछ प्राप्त कर सकें। अनुभूति का 'बीज' उनके भीतर भी 'आत्मभाव' अंकुरित कर सके। मेरा यह भाव जानने भी मेरे पास कोई नहीं आता ,* इसलिए यह पत्र लिख कर ही मैं सन्तोष कर लेता हूँ। और क्या करूँ ?

आपका,
*बाबा स्वामी*

(पूज्य गुरुदेव के आशीर्वचन)

मधुचैतन्य २०११
अपैल, मई, जून

Comments

Popular posts from this blog

Subtle Body (Sukshma Sharir) of Sadguru Shree Shivkrupanand Swami

सहस्त्रार पर कुण्डलिनी