चित्त का स्तर

********" चित्त का स्तर "********
सभी पुण्यात्माओं को मेरा नमस्कार ...
प्रत्येक साधक की कुछ दिन ध्यान साधना करने के बाद यह जानने की इच्छा होती हैं की मेरी कुछ ‘आध्यात्मिक प्रगति’ हुई या नहीं और ‘आध्यात्मिक प्रगति’ को नापने का मापदंड है , आपका अपना चित्त | आपका अपना चित्त कितना शुध्ध और पवित्र हुआ है , वाही आपकी आध्यात्मिक स्थिति को दर्शाता हैं | अब आपको भी अपनी आध्यात्मिक प्रगति जानने की इच्छा हैं, तो आप भी इन निम्नलिखित चित्त के स्तर से अपनी स्वयम की आध्यात्मिक स्थिति को जान सकते हैं | बस अपने ‘चित्त का प्रामाणिकता’ के साथ ही ‘अवलोकन’ करें यह अत्यंत आवश्यक हैं |
(१) दूषित चित्त ----: चित्त का सबसे निचला स्तर हैं , दूषित चित्त | इस स्तर पर साधक सभी के दोष ही खोजते रहता हैं | दूसरा , सदैव सबका बुरा कैसे किया जाए सदैव इसी का विचार करते रहता है | दूसरों की प्रगति से सदैव ‘ईर्ष्या’ करते रहता हैं | नित्य नए-नए उपाय खोजते रहता हैं की किस उपाय से हम दुसरे को नुकसान पहुँचा सकते हैं | सदैव नकारात्मक बातों से , नकारात्मक घटनाओं से , नकारात्मक व्यक्तिओं से यह ‘चित्त’ सदैव भरा ही रहता हैं |
(२) भूतकाल में खोया चित्त ----: एक चित्त एसा होता हैं , वः सदैव भूतकाल में ही खोया हुआ होता हैं | वह सदैव भूतकाल के व्यक्ति और भूतकाल की घटनाओं में ही लिप्त रहता हैं | जो भूतकाल की घटनाओं में रहने का इतना आधी हो जाता हैं की उसे भूतकाल में रहने में आनंद का अनुभव होता हैं |
(३) नकारात्मक चित्त ----: इस प्रकार का चित्त सदैव बुरी संभावनाओं से ही भरा रहता हैं | सदैव कुछ-न-कुछ बुरा ही होगा यह वह चित्त चित्तवाला मनुष्य सोचते रहता हैं | यह अति भूतकाल में रहने के कारण होता हैं क्योंकि अति भूतकाल में रहने से वर्त्तमान काल खराब हो जाता हैं |
(४) सामान्य चित्त ---: यह चित्त एक सामान्य प्रकृत्ति का होता हैं | इस चित्त में अच्छे , बुरे , दोनों ही प्रकार के विचार आते हैं | यह जब अच्छी संगत में होता हैं , तो इसे अच्छे विचार आते हैं और जब यह बुरी संगत में रहता हैं तब उसे बुरे विचार आते हैं | यानी इस चित्त के अपने कोई विचार नहीं होते | जैसी अन्य चित्त की संगत मिलती हैं , वैसे ही उसे विचार आते हैं | वास्तव में वैचारिक प्रदुषण के कारण नकारात्मक विचारों के प्रभाव में ही यह ‘सामान्य चित्त’ आता हैं |
(५) निर्विचार चित्त ---: साधक जब कुछ ‘साल’ तक ध्यान साधना करता हैं , तब यह निर्विचार चित्त की स्थिति साधक को प्राप्त होती है | यानी उसे अच्छे भी विचार नहीं आते और बुरे भी विचार नहीं आते | उसे कोई भी विचार ही नहीं आते | वर्त्तमान की किसी परिस्थितिवश अगर चित्त कहीं गया तो भी वह क्षणिकभर ही होता हैं | जिस प्रकार से बरसात के दिनों में एक पानी का बबुला एक क्षण ही रहता हैं , बाद में फुट जाता हैं , वैसे ही इनका चित्त कहीं भी गया तो एक क्षण के लिए जाता हैं , बाद में फिर अपने स्थान पर आ जाता हैं | यह आध्यात्मिक स्थिति की ‘प्रथम पादान’ हैं होती हैं क्योकि फिर कुछ साल तक अगर इसी स्थिति में रहता हैं तो चित्त का सशक्तिकरण होना प्रारंभ हो जाता हैं और साधक एक सशक्त चित्त का धनि हो जाता हैं |
(६) दुर्भावनारहित चित्त ---: चित्त के सशक्तिकरण के साथ-साथ चित्त में निर्मलता आ जाती हैं | और बाद में चित्त इतना निर्मल और पवित्र हो जाता हैं कि चित्त में किसी के भी प्रति बुरा भाव ही नहीं आता हैं , चाहे सामनेवाला का व्यवहार उसके प्रति कैसा भी हो | यह चित्त की एक अच्छी दशा होती हैं |
(७) सद्भावना भरा चित्त ---: ऐसा चित्त बहुत ही कम लोगों को प्राप्त होता हैं | इनके चित्त में सदैव विश्व के सभी प्राणिमात्र के लिए सदैव सद्भावना ही भरी रहती हैं | ऐसे चित्तवाले मनुष्य ‘संत प्रकृत्ति’ के होते हैं | वे सदैव सभी के लिए अच्छा , भला ही सोचते हैं | ये सदैव अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं | इनका चित्त कहीं भी जाता ही नहीं हैं | ये साधना में लीन रहते हैं |
(८) शून्य चित्त ---: यह चित्त की सर्वोत्तम दशा हैं | इस स्थिति में चित्त को एक शून्यता प्राप्त हो जाती हैं | यह चित्त एक पाइप जैसा होता हैं , जिसमें साक्षात परमात्मा का ‘चैतन्य’ सदैव बहते ही रहता हैं | परमात्मा की ‘करूणा की शक्ति’ सदैव ऐसे शून्य चित्त से बहते ही रहती हैं | यह चित्त कल्याणकारी होता हैं | यह चित्त किसी भी कारण से किसी के भी ऊपर आ जाए तो भी उसका कल्याण हो जाता हैं | इसीलिए ऐसे चित्त को कल्याणकारी चित्त कहते हैं | ऐसे चित्त से कल्याणकारी शक्तियाँ सदैव बहते ही रहती हैं | यह चित्त जो भी संकल्प करता हैं , वह पूर्ण हो जाता हैं | यह सदैव सबके मंगल के ही कामनाएँ करता हैं | मंगलमय प्रकाश ऐसे चित्त से सदैव निरंतर निकलते ही रहता हैं |
अब आप अपना स्वयम का ‘अवलोकन’ करें और जानें की आपकी आध्यात्मिक स्थिति कैसी हैं | आत्मा की पवित्रता का और चित्त हा बड़ा ही निकट का संबंध होता हैं | अब तो यह समझ लो की ‘चित्तरूपी धन’ लेकर हम जन्मे हैं और जीवनभर हमारे आसपास सभी ‘चित्तचोर’ जो चित्त को दूषित करने वाले ही रहते हैं , उनके बीच रहकर भी हमें अपने चित्तरूपी धन को संभालना हैं | अब कैसे , वह आप ही जाने | आप सभी को खूब-खूब आशीर्वाद |
आपका बाबा स्वामी

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