गुरु का सान्निध्य मिले, आत्मसात करना चाहिए

इसलिए जब भी जीवन में गुरु का सान्निध्य मिले, आत्मसात करना चाहिए, उनकी स्मृतयों को भीतर ही सँजोकर रखना चाहिए क्योंकि वे स्मृतियाँ जीवन में एक बड़ी धरोहर होती हैं। गुरु से भी बड़ा गुरु का कार्य होता है। मुझे जीवन में गुरुसान्निध्य केवल कुछ घण्टे ही मिला है लेकिन उन स्मृतियों को मैंने मनमंदिर में स्थापित कर लिया है और अब गुरुकार्य कर रहा हूँ।"जब गुरुकार्य करता हूँ तो लगता है कि मैं मेरे गुरु के सान्निध्य में ही हूँ। क्योंकि गुरुकार्य में सूक्ष्म रूप से गुरु छिपे हुए होते ही हैं। और गुरुकार्य करते समय वह समय-समय पर मार्गदर्शन करते रहते हैं और गुरुकार्य होता रहता है। और तुजे मैंने जो भी बताया, यह मेरा नहीं था। मेरा अपना कुछ भी नहीं है तो मैं कैसे कहूँ कि यह मेरा है? अरे बाबा सुमा, मुझे मेरे माता-पिता ने पैदा किया है। यानी माता और पिता के शरीर से मेरा शरीर बना है और उसमें चेतना परमात्मा ने डाली है। और रही बात ज्ञान की तो ज्ञान मेरे गुरु श्री शिवबाबा ने दिया है। यानी मेरा अपनी कुछ भी नहीं है। मेरे शरीर के लिए मुझे मेरे माता-पिता के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए,शरीर की चेतना के लिए और प्राप्त हुए ज्ञान के लिए मुझे श्री शिवबाबा का आभार व्यक्त करना चाहिए। जब मेरा अपना कुछ नहीं है तो 'मैं ' का अहंकार क्यों? जिस शरीर से यह कार्य घटित हो रहा है वह तो माता और पिता का दिया हुआ है। इसलिए शरीर के द्वारा किए गए कर्म भी एक सीमा तक माता-पिता के ही हुए। माता- पिता शरीर प्रधान करते हैं इसलिए जाने - अनजाने में उनके गुण और दोश इस शरीर में आ ही जाते हैं।
हि.स.यो-४
पुष्ट-६६

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