मुस्लिम फकीर
उन मुस्लिम फकीर को मिले भी सालों बीत गए थे लेकिन वे मेरे भीतर इस प्रकार
बैठे हुए थे मानो "अभी-अभी ही मैं उनको मिला हूँ।" उनमें एक प्रकार की
ताज़गी थी। और उनके आसपास के कचरे से निकलने वाली गुलाब
की सुगंध आज भी मुझे याद है। वह उनके आत्मा के सुगंध थी।
मैं अकेला ही आगे चल रहा था, आसपास जंगल था। कभी-कभी बीच में गड्ढे भी आरहे थे जिनमें बरसात में ढ़लान से आया हुआ पानी भी जमा हुआ था। और उन गड्ढे में वह पानी भी जमा हो रहा था जो पहाड़ों से रिसकरआ रहा था। ये छोटे-छोटे तलाव (पोखर) ही बन रहे थे। बड़ा ही सुंदर वातावरण लग रहा था। गड्ढों का पानी एकदम स्वच्छ था।ऐसे ही एक बड़े गड्ढे के पास आकर मैं रुक गया और तभी मुझे विचार आया कि मैं कभी भी अकेला नहीं होता, गुरूशक्तियाँ सदा मेरे साथ होती ही हैं। जब मैं अकेला रहता हूँ तो उनकी उपस्थिति महसूस भी होती है। और जो गुरू के रूप में जो गुरुशक्तियाँ होती हैं, मन में उनके ही विचार आते हैं, उनकी ही याद आती है। और उनकी यादों का भण्डार मेरे भीतर भरा पड़ा है और वह मेरे जीवन की आवश्यकता से अधिक है तो निश्चित ही मेरे लिए नहीं है। और
जो मेरे लिए नहीं है वह मुझे औरों को बाँटना है। और वह कब और कैसे बॉटूँगा , यह समझ में नहीं आ रहा था। फिर सोचा-यह भी उनगुरुशक्तियों की कृपा में ही होगा। दूसरे ही क्षण लगा-गुरुकृपा तो बरसने के लिए ही होती है और वह तो बरसना ही चाहती है। बस, कोई सुपुत्र , ग्रहण करने वाला चाहिए। जब ये सुपुत्र, महान् आत्माएँ आएँगी यह कृपा स्वयं ही बरसना प्रारंभ हो जाएगी। जो मेरा कार्य ही नहीं है, उसके बारे में मैं क्यों विचार करूँ? उनकी बातें वे ही जानें!
हि.स.यो-४
पुष्ट-७०
की सुगंध आज भी मुझे याद है। वह उनके आत्मा के सुगंध थी।
मैं अकेला ही आगे चल रहा था, आसपास जंगल था। कभी-कभी बीच में गड्ढे भी आरहे थे जिनमें बरसात में ढ़लान से आया हुआ पानी भी जमा हुआ था। और उन गड्ढे में वह पानी भी जमा हो रहा था जो पहाड़ों से रिसकरआ रहा था। ये छोटे-छोटे तलाव (पोखर) ही बन रहे थे। बड़ा ही सुंदर वातावरण लग रहा था। गड्ढों का पानी एकदम स्वच्छ था।ऐसे ही एक बड़े गड्ढे के पास आकर मैं रुक गया और तभी मुझे विचार आया कि मैं कभी भी अकेला नहीं होता, गुरूशक्तियाँ सदा मेरे साथ होती ही हैं। जब मैं अकेला रहता हूँ तो उनकी उपस्थिति महसूस भी होती है। और जो गुरू के रूप में जो गुरुशक्तियाँ होती हैं, मन में उनके ही विचार आते हैं, उनकी ही याद आती है। और उनकी यादों का भण्डार मेरे भीतर भरा पड़ा है और वह मेरे जीवन की आवश्यकता से अधिक है तो निश्चित ही मेरे लिए नहीं है। और
जो मेरे लिए नहीं है वह मुझे औरों को बाँटना है। और वह कब और कैसे बॉटूँगा , यह समझ में नहीं आ रहा था। फिर सोचा-यह भी उनगुरुशक्तियों की कृपा में ही होगा। दूसरे ही क्षण लगा-गुरुकृपा तो बरसने के लिए ही होती है और वह तो बरसना ही चाहती है। बस, कोई सुपुत्र , ग्रहण करने वाला चाहिए। जब ये सुपुत्र, महान् आत्माएँ आएँगी यह कृपा स्वयं ही बरसना प्रारंभ हो जाएगी। जो मेरा कार्य ही नहीं है, उसके बारे में मैं क्यों विचार करूँ? उनकी बातें वे ही जानें!
हि.स.यो-४
पुष्ट-७०
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