चित्त मोक्ष का द्वार

६१.  अपने जीवनकाल में मोक्ष को प्राप्त करो और उसका आनंद लो। मरने के बाद किसने देखा है ?
६२.  मोक्ष और आपके बीच बस एक अड़चन है, वह है 'मैं' का अहंकार। बस यही तो छोडना है। फिर आपने कहाँ छोडा, क्या मायना है ? कहीं भी छोड दो।
६३.  संपूर्ण समर्पण के द्वारा ही इस 'मैं' के अहंकार को छोड़ा जा सकता है।
६४.  'मैं'- अहंकार-रहित शरीर याने मोक्ष-प्राप्त शरीर होता है।
६५.  अब आपको निर्णय लेना है - जीते-जी वास्तविक मोक्ष पाना है या काल्पनिक मोक्ष के लिए मृत्यु की राह देखनी है। जो ऊपर से आदेश हुआ, बता दिया, अब आपका आप जानो।
६६.  जीवन में जीते-जी मोक्ष की स्थिति प्राप्त हो सकती है  'संपूर्ण समर्पण' से। और संपूर्ण समर्पण हो सकता है एक पवित्र और शुद्ध चित्त से। इसी प्रकार हम समझ सकते है कि एक शुद्ध, पवित्र चित्त ही वास्तविक मोक्ष का द्वार है।
६७.  एक शुद्ध व पवित्र चित्त पाने के लिए आवश्यक है 'संपूर्ण समर्पण'। त्याग करना है अपने भूतकाल के जहर का, त्याग करना है दोष-शोधक वृत्ति का, त्याग करना है 'मैं' के अहंकार का, त्याग करना है आलस का, त्याग करना है आसक्ति का।
६८.  पवित्र चित्त में परमात्मा का वास होता है।
६९.  पवित्र चित्त के द्वारा की गई प्रार्थना परमात्मा तक पहुँचती है।
७०.  चित्त को पवित्र करने के लिए जागरुकता की आवश्यकता होती है, जो जागरुकता आती है जागरुक आत्माओं के सान्निध्य में रहने से।
७१.  इसलिए जीवन में जागरूक आत्माओं की सामूहिकता में रहिए, बाकी सब ऐसे ही हो जाएगा।

आध्यात्मिक सत्य, पृष्ठ. १४६-१४७.

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