jadeja:
हमारा स्वयं का चित्त शुद्ध और पवित्र नहीं होता है , और हमारे इस चित्तरूपी कमण्डलु में हम जीवनभर अमूत इकठ्ठा करते रहते हैं , कोसी मंदिर में जाते हैं , वहाँ से थोड़ा अमूत इकट्ठा करते हैं , अपने कमण्डलु में डालते हैं , किसी स्वामी के पास जाते हैं ब, वहाँ से थोड़े चैतन्य ग्रहण करते हैं अपने कमण्डलु में डालते हैं , किसी तीर्थस्थान पर जाते हैं , वहाँ से थोडा़ चैतन्य ग्रहण करते हैं और अपने कमण्डलु में डालते हैं , किसी समाधिस्थ गुरु के पास जाते हैं , वहाँ से थोड़ा चैतन्य ग्रहण करते हैं और अपने कमण्डलु में डालते हैं। लेकिन अगर हमारा चित्त ही शुद्ध नहीं है , तो जीवनभर कितना भी हम अमूत इकट्ठा कर लें , भीतर के जहर से वह अमूत भी जहर हो जाएगा। यानी अब हमने अमूत इकट्ठा करने की प्रक्रिया बंद कर देनी चाहिए। प्रथम अपने चित्त की शुद्ध और पवित्र करना चाहिए। दूसरा , अब यह चित्त पवित्र कैसे हो सकता है ? हमारा चित्त दूषित होता ही है। अपने-आपको शरीर समझने से चित्त का दूषित होने शरीर का ही एक विकार है। जब आप शरीरभाव से ही मुक्त हो जाओगे , तो चित्त दूषित होने का प्रश्न ही नहीं। चित्त दूषित होता है विचारों से और विचार तो तभी आते हैं , जब आप अपने -आपको एक शरीर समझते हो। यानी अगर आप अपने-आपको एक आत्मा मानो तो न शरीरभाव का प्रश्न है और न चित्त दूषित होने का प्रश्न है।

भाग - ६ - २४५/२४६

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