गुरुमंत्र
गुरुमंत्र वह मंत्र है , जो पवित्र गुरुओं ने पवित्र आत्माओं के लिए तैयार किया है। वह मंत्र पवित्र आत्माओं के लिए है , इसलिए जब तक हम पवित्र आत्मा नहीं बन जाते , उस मंत्र की ऊर्जा हमें अनुभव नहीं होगी। धार्मिक ग्रंथों में भी आप एक पवित्र आत्मा हैं , यह मानकर ही सब बातें लिखी होती हैं। अगर आप आत्मा के स्तर तक पहुँचकर ही वह धर्मग्रंथ पठते हैं , तो उसका अर्थ और ऊर्जा आपको प्राप्त होगी , अन्यथा नहीं। अब मैं आपको एक उदाहरण से समझाता हूँ। श्री ज्ञानेश्वरजी ने कहा है - देवाचिये द्बारी , उभा क्षणभरी। तेणे मुक्ती चारी साधियेल्या।। यानी तू मंदिर के दरवाजे के सामने खड़ा हो जा तो तुझे मुक्ती मिल जाएगी। अब सर्वसामान्य मनुष्य ने उसका अर्थ यह लगया कि तू एक मंदिर बना और मंदिर के दरवाजे के पास जाकर रोज तू बैठ तो तुझे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। जबकि उन्होंने सामने वाला एक पवित्र आत्मा है , एक शुद्ध आत्मा है ऐसा मानकर बताया था। लेकिन उनका अर्थ वह नहीं था , जो सामान्य मनुष्य ने समझा था। उनका कहने का अर्थ यह था कि आपका शरीर ही एक मंदिर है और इस मंदिर के दरवाजे पर बैठ यानी इस शरीर रूपी मंदिर का दरवाजा है -सहस्त्रार चक्र जो हमारे सर पर तालु भाग पर होता है। और उस तालु भाग पर बैठने का अर्थ है कि एक ऐसी स्थिति में बैठना या मध्य में बैठना जब आपको भूतकाल के विचार भी न हों और भविष्यकाल के विचार भी न हों। यानी आप विचारों से ही संपूर्ण मुक्त हो जाओ और एक निर्विचारिता की स्थिति आपको प्राप्त हो जाए। और आप उस स्थिति में १० मिनिट रोज बैठते हैं तो आपको मोक्ष की स्थिति प्राप्त हो जाएगी। लेकिन इतने गूठ़ अर्थ को मनुष्य ने सरल समझ लिया ,वैसा किया। मनुष्य सदैव आसान मार्ग ही चुनता है , वह अपनी सुविधा के अनुसार ही प्रत्येक बात का अर्थ लगता है। यह इसलिए होता है कि मनुष्य के शरीर पर सब नियंत्रण होता है बुद्धि का। और बुद्धि जो कहती है , वही वह करता है। जब बुद्धि ही शरीर से संबंधित है तो वह शरीर से जो हो सकेगा , वही मार्ग बताएगी। शरीर सदैव अपने स्तर पर ही सोचता है , जबकि पहले के संतों ने आत्मा के स्तर पर पहुँचकर ही बताया है। तो वह बता रहे हैं एक स्तर से और मनुष्य सुन रहा है दूसरे स्तर से , यही हो रहा है। इसी कारण जो संवाद दिनों में होना चाहिए वह नहीं हो रहा है। क्योंकि दोनों का कहने और सुनने का स्तर ही अलग-अलग है।
भाग - ६ - २२८/२२९/२३०
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