शरीर नाशवान है
शरीर नाशवान है। नाशवान पर चित्त रखकर शाश्वत नही पाया जा सकता है। सद्गुरु के शरीर पर चित्त रखकर हम हमारी ही आध्यात्मिक प्रगति को रोक रहे हैं।
दुसरा , जिन हजारों साधकों को उस शरीर से आत्मप्रकाश , आत्मचैतन्य मिलता है , उसमें भी हम बाधक बन रहे हैं।
तिसरा नुकसान हम उस सद्गुरू के शरीर का भी कर रहे है , जो सब दोष , बीमारीया लेने के लिए बाध्य है। क्योंकि वह शरीर इतना संवेदनशील है कि लेना या न लेना उसके हाथ में नहीं है, वह शरीर तुरंत दोष ग्रहण कर ही लेता है और साधकों के दोषो का, साधकों की बीमारियों का खामीयाजा सद्गुरू के शरीर को उठाना ही पडता है।
इसलिए सद्गुरु के शरीर से उचित अंतर बनाए रखने की आवश्यकता है , अन्यथा साधक अनजाने में सद्गुरू के शरीर का नाश का कारण बनते हैं। इसलिए आवश्यक है कि साधकों का चित्त उनके शरीर पर नहीं , सूक्ष्म शरीर पर होना चाहिए। इसीमें सभी की प्रगति है।
---- *पूज्य गुरुदेव*
*मधुचैतन्य जुलै २००५*
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