मेरे ऑरा की समस्या

*सभी पुण्यात्माओं को मेरा नमस्कार . . .*

आप लोग बार-बार आपकी समस्या लेकर मेरे पास आते हो। *आज पहली बार और आखरी बार मैं मेरी समस्या लेकर आपके पास आया हूँ* क्योंकि इस समस्या का हल आप ही के पास है , क्योंकि यह समस्या भी आप ही के कारण निर्माण हुई है। *"आप ही ने दर्द दिया है। अब आप ही दवा देना ,"* यह सोचकर मैं यह समस्या आपके सामने रख रहा हूँ।

मेरी समस्या , ऑरा (आभामंडल) की समस्या है। जब मेरा शरीर आपसे सैकड़ों मील दूर रहता है , तो मुझे शरीर में गर्मी की समस्या नहीं होती है और मैं ठीक रहता हूँ। लेकिन *जब आप लोग मेरे स्थूल शरीर के आसपास रहते हो , तो मुझे गर्मी की तकलीफ शरीर में होने लगती है।* अभी जब मैं लेख लिख रहा हुँ , तब मैं आपसे सैकड़ों मील दूर हुँ , यहाँ मेरे आसपास सैकड़ों मिल तक कोई साधक नहीं है। अभी मैं ठीक हूँ और ऐसा अनेक बार दूर जाने पर अनुभव हुआ है। जैसे सिक्किम - 'नाथूला पास' गया था , तब भी यही अनुभव रहा है। और आज भी यही अनुभव आ रहा है।

यहां अच्छा केवड़ा का जंगल है। उसमें मैं ध्यान साधना कर रहा हूँ। इसका सीधा अर्थ है। *आप लोग नियमित ध्यान नहीं करते हैं और दूसरा , साधकों के साधकों के साथ अच्छे संबंध नहीं हैं। ध्यानमार्ग में आने के बाद भी अहंकार , ईर्ष्या , आत्मग्लानि , आसक्ति से भरा आपका चित्त है। और ऐसे दूषित चित्त के कारण आपका मेरे आसपास होने पर मुझे शारीरिक पीड़ा होती है।*

इसलिए आवश्यक (है) - *आप नियमित ध्यान करें और उपरोक्त दोषों से दूर रहकर अन्य साधकों से अच्छे संबंध बनाएँ क्योंकि मेरा सूक्ष्म शरीर प्रत्येक साधक में बँटा हुआ है।* और यह विशेष रूप से श्री बाबा धाम और समर्पण आश्रम के ७० किलोमीटर तक के दायरे में रहने वाले साधकों को यह ध्यान देना ही होगा क्योंकि यहाँ पर मैं स्थूल रूप में रहता हूँ और इन्हीं साधकों से मेरा संपर्क होना है। उनके यह व्यवहार से मुझे तकलीफ होती होगी , इसका एहसास भी उन्हें नहीं है।

*अब इसके दो ही उपाय हैं। या तो मैं स्थूल शरीर से सभी साधकों से सैकड़ों मील दूर रहूँ या मेरे आसपास साधक अपने-आपको सुधार लें।* यही हाल अन्य स्थानों का है। मुझे अपने सेंटर पर , अपने देश में आमंत्रित करते हैं। लेकिन मैं आपके देश में आ सकूँ और मेरे स्थूल शरीर को कोई तकलीफ न हो , ऐसा वातावरण नहीं बनाते हैं। इसलिए *मुझे बुलाने के पूर्व आवश्यक है , वह उचित वातावरण बनाएँ ताकि मैं भी प्रसन्न रह सकूँ और मेरे शरीर को भी तकलीफ न हो क्योंकि शारीरिक तकलीफें शरीर को क्षीण करती हैं। शरीर आपको समर्पित किया है। कितने दिनों तक जीवित रखना है , उसका निर्णय आप ही करो। सुक्ष्म में तो मैं हूँ और सूक्ष्म में तो मैं ८०० सालों तक आगे रहूँगा ही।*

आपका ,
*बाबा स्वामी*

मधुचैतन्य २००६
अक्टूबर-नवम्बर-दिसंबर

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