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सभी पुण्यात्मा को मेरा नमस्कार......

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में पिता की भूमिका पड़दे(परदे) के पीछे की ही होती है। वह अपने बच्चे से प्रेम ही करता है, पर दिखता नहीं है। उसका प्रेम चले जाने के बाद पुत्र को पता चलता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

मेरे पिता के पास मुझे पढ़ाने के लिए पैसे नहीं होते थे तो पढ़ाई का आग्रह उन्होंने कभी नहीं किया। पढ़ाई कर, ऐसा घर में मुझे किसी ने नहीं कहा फिर भी अन्य बच्चों को पढ़ाकर मैं पैसे कमाता था और एम. कॉम. तक स्वेच्छा से ही पढ़ा।

उन्हें मेरी पढ़ाई से ज्यादा मेरी सुरक्षा की चिंता होती थी। बाहर बेकार भटकना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। मिलेट्री (सेना) में आसाम में नौकरी मिली थी वह उन्होंने करने नहीं दी। बाद में एक प्राइवेट नौकरी कलकत्ता में की। वहाँ के दौरे भी उन्हें पसंद नहीं थे।

इन दौरों में ही कानपुर के दौरे में मेरी श्री शिवबाबा से भेंट हुई थी। दौरे मुझे भी पसंद नहीं थे पर मैं बेचैन रहता था परमात्मा को खोजने के लिए, इसलिए भटकता था। श्री शिवबाबा मुझे परमात्मा के रूप में मिल गए और भटकन बंद हुई। फिर शादी हुई और कुछ दिन में मैंने नौकरी भी छोड़ दी। उनका उसमें भी बड़ा विरोध था। उनका भी सही है, इकलौता पढ़ा-लिखा लड़का अच्छी नौकरी छोड़कर बाबाजी बने तो कोई भी पिता नाराज होगा ही। बाद में उन्होंने खूब समझाया। मैं नहीं माना तो पत्नी को समझाया। वह भी नहीं मानी तो फिर उन्होंने मुझे गालियां देना प्रारंभ किया। यानी सदैव डाँटते ही रहते थे, बहुत पीड़ा हो ऐसा बोलते थे। वे कहते थे तू नपुंसक है इसलिए पत्नि की रोटीयाँ तोड़ता है। किसी पुरुष के लिए यह बड़ा अपमान है, पर गुरुमा (मुझे) कहती थी, "तुम्हारे बच्चों को पालने के लिए मैं समर्थ हूँ, तुम उनकी बात पर ध्यान मत दो, तुम वही करो जो तुम्हारा मन करता है।" बाद में आसाम में ही आदिवासीयो के छोटे-छोटे शिविर लेता था तो वे कहते थे 'अंधो में काना राजा' ऊनको कोई ज्ञान नहीं है, इसलिए तुझे सुनते हैं।

बाद में मुंबई आया और फिर विदेश जाने लग गया तब उनकी सोच में थोड़ा बदलाव आया, उन्होंने बुरा-भला कहना बंद किया। बाद में अनेकों देशों में जाने लग गया तो फिर एक दिन वही बोले, "तेरे में कुछ तो दैविक शक्ति है जो मुझे समझ नहीं आती, इतने देश के लोग पागल थोड़ी हैं जो तुझे बुलाते हैं।" बाद में घर में उन्हें अनुभव हुआ। मैं जो कहता था, वह विपरीत परिस्थिति में भी सच हो जाता था। यह बात जब मेरी मौसी को मालूम पड़ी तो वह बोली, "वह बचपन से ही बत्तीसिया है। यह जो बोलता है, वह होता ही है।"

में कहता था, "शक्ति मेरे नहीं है, मैं उन शक्तियो से जुड़ा हुआ हूँ। तुम जब तक अपना चित्त उन शक्तियों पर नहीं ले जाते तुम्हें वह अनुभव नहीं होंगी। यह शरीर तुम्हारे बेटे का है, इस पर तुम्हारा अधिकार है। जब तक तुम मुझे गुरु के रूप में स्विकार नहीं करते ये तुम्हें अनुभव नहीं होगी।"

मुझे खूब लगता था कि उन्हें भी अनुभती हो पर मैं कुछ कर नहीं पा रहा था। लेकिन जैसे-जैसे मेरी आध्यात्मिक प्रगति होती गई उसका प्रभाव उन पर भी होने लग गया। मृत्यु के तीन साल पहले जब मैं उन्हें पिता के रूप में नमस्कार कर पैर छूता था तो वो बोलते थे, "अब मैं तुझे नहीं तेरे भीतर के गुरु के गुरु के पैर छू रहा हूँ।"
कहकर मेरे पैर छूते थे। और धीरे-धीरे वह एक आत्मा के आनंद की स्थिति का अनुभव करने लग गए थे। वे अपने शरीर को कमरे में पड़ा देखते हुए भी सारे घर में घूमते थे, वे अपने शरीर से मुक्त हो गए थे। उन्हें अभी शरीर छूटने का डर भी नहीं रहा था। कोई इच्छा भी बाकी नहीं रह गई थी, एकदम जीवन के उस समाधान को प्राप्त कर लिया था जिसे मोक्ष की स्थिति कहते हैं।

उन्होंने अपनी इच्छा से ही अपने मृत्यु का दिन भी महाशिवरात्रि का निष्चित कर लिया। मैं यहाँ गहन ध्यान अनुष्ठान में था और उन्होंने देह त्याग कर दिया।

मैंने आश्रम में रहकर ही बाद में ध्यान किया और उनकी अंतिम यात्रा में चित्त से ही शामिल हुआ और आश्रम में जैन मुनियों का शिविर लिया; किसी को इस घटना की भनक भी लगने नहीं दी। मेरे वे घोर विरोधी थे तो इसलिए मुझे उनकी सदैव चिंता थी कि वे मुझसे आत्मसाक्षात्कार ले पाएंगे या नहीं, लेकिन वे ले पाए तो लगता है कि मेरा कोई कितना भी विरोधी हो वह भी एक दिन आत्मसाक्षात्कार अवश्य लें पाएगा। क्योंकि विरोध तो उनका स्वभाव है, पर विरोध के कारण उसका चित्त तो सदैव मेरे पर ही रहता ही है। यह विरोधी लोगों का आत्मसाक्षात्कार पाने का अपना स्टाइल है।

परमात्मा से प्राथना है - मेरे सभी विरोधियों को जो मुझे गालियां देते हैं, मुझे बुरा भला कहते हैं, उन सबको मेरे पिता की तरह इस जन्म में आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो बस, यही शुद्ध इच्छा है। आप सभी को खूब खूब आशीर्वाद!

आपका,
बाबास्वामी

🌺मधुचैतन्य🌺
जनवरी-फरवरी २०१८

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