आत्मसंगत
कई साधकों को देखता हूँ कि 'आत्मसाक्षात्कार' को पाकर भी जीवनभर न समझ सके लेकिन *अपनी मृत्यु के पूर्व 'समझ' जाते हैं कि उन्होंने जीवन में क्या पाया था और 'आत्मसाक्षात्कार' पाकर भी 'जीवन व्यर्थ' ही गवाँया।* लेकिन उस मृत्यु के समय 'पछतावा' करने के अलावा हाथ में कुछ नहीं रहता है। और यह केवल इसलिए होता है क्योंकि शरीरभाव को अधिक महत्व दिया। और शरीरभाव कब समाप्त हुआ ? जब शरीर ही समाप्त हो गया ! तब मुझे ही याद करते हैं , रोते हैं , गिड़गिड़ाते हैं। तब मैं भी क्या कर सकता हूँ ? *अब अगले जनम में यह गलती मत दोहराना , बस यही कहता हूँ।* कल यही बात आपको न कहना पड़े , इसलिए कहता हूँ - *'आत्मसंगत' करो। केवल और केवल 'आत्मसंगत' से ही मोक्ष की स्थिति पाना संभव है।* यह मैं मेरे ६० सालों के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ। *आप किसी के साथ रहो या न रहो , अपनी आत्मा के साथ 'आधा घण्टा' अवश्य रहो।*
यह एक *'आत्मसंगत'* की साधना है , यह जीवन में धीरे-धीरे रंग लाती है। एक आधा घण्टा एकांत में ऐसे बैठो कि आपके १५-२० फीट में अन्य कोई भी मनुष्य न हो। *यह आधे घण्टे का 'एकांत' और 'मौन' आपका सारा जीवन ही बदल देगा।*
*🌹H. H. Swamiji🌹*
*।। सद्गुरु के हृदय से ।।*
(पृष्ठ : २९,३०)
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