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◆ गुरु कोई तुलना करने की चीज नहीं है। दो गुरुओं की तुलना कभी भी नहीं करनी चाहिए। गुरु एक ही होना चाहिए , तब ही चित्त की एकाग्रता एक ही स्थान पर हो सकती है। जिस तरह से मेरे जीवन में एक ही गुरु थे और उन्होंने ही दूसरे गुरु तक पहुँचाया।

◆ गुरु क्या करते हैं , उसके ऊपर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है , क्योंकि वह आपकी समझ से बाहर है। गुरु जो कहते हैं , वह भी आपकी समझ से ऊपर है। इसलिए गुरु सिर्फ अनुभव करने की चीज है। उनके सान्निध्य में आपको क्या अनुभव होते हैं , उन पर ध्यान दीजिए। आपके दोषों को दूर करने के लिए गुरु कुछ भी करते हैं , उस पर ध्यान न देकर उनके सान्निध्य में आपको क्या अनुभव होते हैं , उसी पर ही गौर करें। उसके लिए धीरज और संयम की आवश्यकता है।

◆ गुरु और हमारे बीच बहुत बड़ा आध्यात्मिक अंतर होता है। इसलिए उनकी बात हमें बहुत देर से समझ में आती है। आज तक ऐसा कोई भी साधक नहीं है जो गुरु को पूर्णतः समग्रता से जान सके , क्योंकि उसकी जिस दृष्टिकोण से प्रगति हुई हो , उसी दृष्टिकोण से वह पहचान सकता है। जब उसकी पूर्णता से प्रगति होती है , तब वह उनको समझ सकता है।

◆ शिष्य कोई भी स्थिति में हो , गुरु उसे संरक्षण देता है। गुरु अपने पास माया का कवच पैदा करता है जिससे कई लोग अपनी शंका में उलझकर पास भी नहीं आ सकते हैं।

◆ आध्यात्मिक प्रगति से सर्वांगीण प्रगति होती है। अच्छे से अच्छे भौतिक सुख आपको प्राप्त होते हैं। गुरु जहाँ जाते हैं , वहाँ सबकुछ अपने-आप होने लगता है। सामान्य व्यक्ति को प्राप्त होने से वह भोग-विलास में पड़ जाता है और साधुपुरुष उन सब से अलिप्त रहते हैं।

🌹परम पूज्य श्री शिवकृपानंद स्वामीजी🌹
(२३ फरवरी २००३)

मधुचैतन्य (पृष्ठ : २०,२१)
अप्रैल, मई, जून - २००३

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