Posts

Showing posts from October, 2018

आत्मा

" प्रत्येक मनुष्य के शरीर के भीतर एक आत्मा होती है। यूँ समझे कि वह भी एक न दिखनेवाला छोटा-सा शरीर ही है। चित्त उस आत्मा की आँख होती है। आत्मा शरीर से अधिक शक्तिशाली होता है। इसीलिए आत्मा की शक्त्ति भी शरीर से अधिक शक्तिशाली होती है।जिस प्रकार शरीर की आंखें होती है, वैसे आत्मा की भी आँखे होती है। उसी को चित्त कहते हैं। यानी चित्त को आत्मा की आँख कह सकते हैं।"              " यह आत्मा की आँख होने के कारण यह शरीर की आँखों से अधिक शक्त्तिशाली होती है। इससे देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है। यह अंधेरे में भी देख सकती है। दूसरा, इसकी कोई सीमा नहीं होती है। यह एक स्थान से हजारों मील दूर का भी देख सकती है।एक क्षण में देख सकती है । इसकी बहुत गति होती है। यह विश्व में सबसे अधिक गति वाली होती है। यानी चित्त को हम आत्मा की आँख कह सकते हैं।" हि. का.स. योग भाग 1 पेज 60/61

आत्मा पर चित्त

    अगर  आप  "आत्मा " पर  चित्त  रखना  सीख  जाएँगे  तो  आप  जान  पाएँगे ,आप  किनके  साथ  जीवन  जी  रहे  हो । प्लास्टिक  की  गोटीयाँ  गिनकर  १-२-३-४  बोलना  अब  बहूत  हो  गया । अब  ब...

क्षमा

"अगर किसी व्यक्तिविशेष के प्रति गुस्सा हो, नाराजगी हो तो यह भी एक ख़राब स्थिति का द्योतक है । आपके मन में जिस व्यक्ति के प्रति नाराजगी है, उसे क्षमा कर दीजिये, हृदय से क्षमा कर द...

कुंडलिनी जागृती

*॥जय बाबा स्वामी॥* *कुंडलिनी जागृती:* continue ...... सद्गुरु आत्मा को जागृत नहीं करता है पर उसके सान्निध्य में आत्मा जागृत हो सकती है बशर्ते वह आत्मा जागृत होने की इच्छा करे। और अगर इच्छा करती है तो कुंडलिनी जागृत हो सकती है। और जागृती के बाद वह सभी चक्रों को भेदकर सहस्त्रार चक्र  तक आती है। इसके गर्भ में प्रवेश करते समय जो चक्र ऊर्जा ग्रहण नहीं कर पाए थे , ऐसे चक्र भी जागृती के बाद उस ऊर्जा को ग्रहण करते हैं और मनुष्य के सभी चक्र क्रियान्वित हो जाते हैं। और उन चक्रों पर स्पंदन भी महसूस किए जा सकते हैं। और इस प्रकार जागृती के बाद अगर साधक प्रतिदिन इसी साधना को दोहराता है तो उसके सभी चक्र सदैव क्रियान्वित रहकर उसकी कार्यक्षमता को बढाते हैं। उसका आत्मग्लानि का भाव दूर होता है। अंत में उसका 'मैं' का अहंकार दूर होता है। सबसे बडा बदलाव -- साधक का उसके चित्त पर नियंत्रण होने लगता है और साधक का चंचल चित्त स्थिर होने लगता है। और चित्त स्थिर होने से मन में पहले जो अनावश्यक , बेकार के विचार आते थे वे आने भी बंद हो जाते है। *मनुष्य के लिए जागृती प्राप्त करना ही सबकुछ नहीं ह...

आत्मचिंतन

सभी पुण्यआत्माओं को मेरा नमस्कार..... आज सुबह-सुबह अपने ही जीवन पर आत्मचिंतन किया तो पाया – सदैव ध्यान करते-करते एक सकारात्मक सोच का निर्माण हुआ । सदैव जीवन में सकारात्मक भाव ...

गुजरात पोलिस रक्षक वर्ष शिबीर 🇧🇴२०१८

💠  शरीर को मोबाइल समझो और ध्यान को चार्जर ! 💠  आपकी आत्मा (strong) स्ट्रोंग हो आपकी आत्मा सशक्त हो , तो उसके लिए नियमित आधा घंटा ध्यान करना होगा । 💠  ध्यान करना आपका क्षेत्र है । ध्या...

आपके सूक्ष्म शरीर के माध्यम से क्या आप निसर्ग में विलीन हो गए है ?

॥  चैतन्य प्रवाह  ॥  साधक : आपके  सूक्ष्म  शरीर  के  माध्यम  से  क्या  आप  निसर्ग  में  विलीन  हो  गए  है ? स्वामीजी : हाँ । इसीलिए  अगर  आप  मेरे  सूक्ष्म  शरीर  से  जुड़  जाते  है  तब  आप  निसर्ग  से  भी  जुड़  सकते  है । इसका  मतलब  यह  नहीं  है  की  मैं  एक  समय  पर  सब  जगह  हूँ , परंतु  मैं  अगर  इच्छा  करू  तो  मैं  कही  भी  विलीन  हो  सकता  हूँ । ✍..पूज्य स्वामीजी टिम शाईम [ U.K ] की प्रश्नोत्तरी के अंश ।

शरीरभाव ही प्रथम रुकावट

"शरीरभाव " ही  "प्रथम   रुकावट"  है  जो  अपने  शरीर  की  समस्याओं  की  ओर  ही  आपका  ध्यान  "आकर्षित " करेगी  क्योंकि  आप  अगर  ध्यान  करेंगे  तो  आत्मा  का  भाव  बढ़ेगा  औऱ  शरीरभाव  कम  होगा । इसलिए  आपका  ध्यान  समस्याओं  की  ओर  करके  शरीरभाव  आपके  मार्ग  में  बाधा  खड़ी  करता  है । इसलिए  प्रथम  तो  इससे  सावधान  ही  रहे । ध्यान  कभी  भी  "अपेक्षा " के  साथ  नहीं  करना  चाहिए  क्योंकि  अपेक्षा  तो  शरीर  का  ही  भाव  होता  है । "निःस्वार्थ  भाव " से  ही  ध्यान  करे । "निःस्वार्थ  भाव " आत्मा  का  भाव  होता  है । .....* *✍पू .सदगुरु बाबा स्वामीजी*

मनुष्य की मृत्यु हो जाने के बाद

मनुष्य की मृत्यु हो जाने के बाद, कहते है, उसकी आत्मा तीन दिनों तक इसी अंतराल में रहती है। और तीन दिनों के बाद वह अपनी गती को प्राप्त करती है। वह आत्मा अपनी शरीर की मृत्यु देखती है, उसका दहन संस्कार देखती है। उसके जाने के बाद उसके रीश्तेदार, उसके संबंधी, उसके मित्र कैसा शोक मानते है, वह सब अपने शरीर की मृत्यु के बाद देखती है। ऐसा ही एक अनुभव मुझे अपने आश्रम में हुआ। मैंने मेरी मृत्यु देखी, मृत शरीर देखा। शरीर मृत होने पर घटनेवाली घटना देखी। क्या घटना घटी और उसका वातावरण पर क्या पराभव हुआ, वह देखा। उस प्रभाव में, सारे वातावरण में जो साधक आए, उन पर हुआ प्रभाव देखा है। यह घटना एक संपूर्ण घटनाचक्र की एक कडीमात्र थी ।  मधुचैतन्य:जुलाई 2008./pg 2

आत्मा की शुद्धता के बिना

"आत्मा की शुद्धता के बिना , आत्मा के पवित्रता के बिना शरीर के 'मैं' के अहंकार को समाप्त करना असंभव है | और उस 'मैं' के अहंकार के साथ कितना भी पुण्यकर्म करो , वह 'मैं' के अहंकार में वृद्धि ही करेगा | 'मैं' का अहंकार शरीर का एक सशक्त भाव है | और इस भाव के साथ कभी कोई पुण्यकर्म घटित हो ही नहीं सकता | और अगर हुआ तो वह केवल और केवल 'मैं' के अहंकार को ही बढ़ानेवाला होगा | और हम 'मैं' के अहंकार को कम करने का प्रयास करेंगे तो वह रूप बदलेगा |-- उसे अगर समाप्त करना है तो शरीरभाव को ही समाप्त करना होगा और फिर न शरीर भाव होगा और न शरीर का अहंकार | लेकिन शरीर के अहंकार को सीधा समाप्त करने का प्रयास करोगे तो वह कभी समाप्त नहीं होगा | मान लो, शरीर एक वृक्ष है और 'मैं' का अहंकार उसका फल है | तो आप एक फल को नष्ट करोगे तो दूसरा फल आएगा और दूसरे फल को नष्ट करोगे तो तीसरा फल आएगा | याने जब तक वृक्ष हैं , तब तक फल आएंगे ही | इसलिए वृक्ष को ही समाप्त करने की आवश्यकता है | आप जब 'मैं' के अहंकार को समाप्त करने के लिए प्रयत्न करते हैं ...

अनमोल पत्थर

'स्वामीजी' एक ऐसे अनमोल पत्थर है जिस पत्थर से जो भी मांगे , वह इच्छा पूर्ण होती हैं । उसके सानिध्य में हमारी बीमारियाँ दूर होती है , हमें कष्टों से राहत मिलती है ,आराम मिलता है । ...

सदगुरु के दर्शन का सही उपयोग

सदगुरु के दर्शन का सही उपयोग यह है कि उसके सानिध्य में जितना अंतर्मुखी हो सकते हो, होना चाहिए और अपनी आत्मा तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए। और अब आप अंतर्मुखी होकर 'आत्मा' त...

ब्राह्मण शब्द का अर्थ

ब्राह्मण शब्द का अर्थ है - जो ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति है ,जिसे ब्रह्म का ज्ञान है | ध्यान रखना , यहाँ पर 'ज्ञान ' शब्द का अर्थ है - 'अनुभूति '| यानी, ' ब्राह्मण ' यानी वह व्यक्ति जिसने ब्रह्म की अनुभूति पाई हो | और जिसने ब्रह्म की अनुभूति पाई हो, वह इन जाति और धर्म की सीमाओं से ऊपर हो जाता है | और जब मैंने ब्रह्म अनुभूति पाई तो 'ब्राह्मण' शब्द का अर्थ समझ में आ गया | ' ब्राह्मण ' यानि ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति | और आवश्यक नहीं की वह ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति जाति से ब्राह्मण ही हो | अब तो प्रत्येक ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति को मैं 'ब्राह्मण' ही मानता हूँ , भले ही वह जाती से ब्राह्मण न हो | "      हि.स.यो.६/ २४

स्त्रीशक्त्ति

" स्त्रीशक्त्ति" का सन्मान कर हम स्त्रियों पर उपकार नहीं कर रहे है। हम 'स्त्रीशक्त्ति' को मजबूत कर मानवसमाज को संतुलित कर रहे है और सन्तुलन किसी भी समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है ।    " इस बात को अनेक संतो ने जाना है  इसलिए अनेक सन्तों ने बार-बार इसके लिए प्रयास किए हैं।और वर्तमान के संत भी यह प्रयास कर ही रहे हैं l हि. का. स. यो.(1)पेज 52
जो आदिवासी अनपड़ लोग प्रकृति को करीब से जानते थे , उन आदिवासी लोगों ने इसे सर्वप्रथम सीखा है , उन्हें इसे ग्रहन करना एकदम सरल था। अब आपके डॉक्टर जैसे बुद्धि के प्रश्न पूछे रहे ...
जो आदिवासी अनपड़ लोग प्रकृति को करीब से जानते थे , उन आदिवासी लोगों ने इसे सर्वप्रथम सीखा है , उन्हें इसे ग्रहन करना एकदम सरल था। अब आपके डॉक्टर जैसे बुद्धि के प्रश्न पूछे रहे ...

✨RETURN OF THE HIMALAYAN SAINT 2018 KATHMANDU, NEPAL 23 – 25 November 2018✨

✨RETURN OF THE HIMALAYAN SAINT 2018 KATHMANDU, NEPAL 23 – 25 November 2018✨ He was a simple person just like you and me. But he was always searching for God until an unexpected trip to Nepal that changed his life and kickstarted his spiritual journey. He then spent years in the Himalayas learning from different Gurus and eventually returned to the society to bring Samarpan meditation to the masses. Today, His Holiness Shree Shivkrupanand Swami has introduced Samarpan Meditation to thousands over the world. In November 2018, he comes back to Nepal once again to pay homage and enlighten us on Samarpan Meditation and more. Enjoy the proximity of the Himalayan Saint and embark on a journey to inner peace at one of the world’s most beautiful spiritual destinations. — For more information on the event, contact: +977 9811057445, +977 9864411390 samarpan.kathmandu@gmail.com journey2innerpeace.com/nepal

भुज आकाशवाणी के कायेक्रम के बाद आया एक समेपीत साधक का प्रश्न ?

भुज आकाशवाणी के कायेक्रम के बाद आया एक समेपीत साधक का प्रश्न ? बहूत अच्छा है ना गुरुदेव मेरा तो यह भाव आप आपकी करुणा कच्छ के मीडिया वालोंपे जो बरसाते है वही करुणा समूचे विश्...

कलश कैसे स्थापित करे ?

किसी ने ऐक बार पूछा था....कलश कैसे स्थापित करे ? कलश स्थापन की रीत:- सामग्री:- 1) कलश (आधे से ज्यादा,स्वच्छ पानी से भरा) 2) चावल (पूर्ण/अक्षत...टुटे हुऐ न हो ऐसे) 3) ऐक नारियल (ज्यादा पानी से भर...
॥ मन का समर्पण ॥     मन  के  समर्पण  से  मेरा  आशय  है  मन  से  सदैव  गुरुदेव  का  स्मरण  करो  और  गुरुदेव  मेरे  साथ  है , मेरा  कभी  कुछ  बुरा  हो  नहीं  सकता  है , यह  भाव  रखो  ...

आध्यात्मिक क्रांति का क्रियान्वयन ' स्त्री-शक्त्ति 'से ही होगा

" जब भी कभी आध्यात्मिक क्रांति इस जगत में आएगी, तो उस आध्यात्मिक क्रांति का क्रियान्वयन ' स्त्री-शक्त्ति 'से ही होगा। स्त्रीसुलभ गुण है - वह अपने जीवन में एक साथ कई रिश्तों से, कई नातों से जुड़ी हुई होती है। वह शरीर से एक होकर भी अनेक रूपों में समर्थता के साथ जीती है। जब वह एक ओर गर्भ में अपने शिशु की माँ होती हैं, उसी समय वह अपने पति की पत्नी भी होती है। जबकि पुरुष अपनी पत्नी का पति होता है, पर बाप नहीं होता। वह अपने शिशु से अलिप्त रहता है। जब तक स्त्रीशक्त्ति को समान दर्जा नहीं दिया जायेगा , तब तक समाज में कोई आध्यात्मिक क्रांति सम्भव नहीं है। क्योंकि तब तक समाज पंगु होगा। पंगु समाज कभी दौड़ नहीं सकता हैं ।" हि. का. स. यो.(1)पेज 51H024

अनमोल पत्थर

महाशिविर तथा स्वामीजी के अनेक कार्यक्रमों में हजारों लाखों लोगों को मन की शांति का अनुभव होता है । हम साधकों को एक बार नहीं , अनेक बार बल्कि प्रत्येक बार ऐसा अनुभव हुआ ही है । भला हजारों लोगों की मन की अशांति कहां गई?  उच्च रक्तचाप B.P.मधुमेह डायबिटीज कम कैसे हुए ? वास्तव में ,स्वामी जी की देह वेक्यूम क्लीनर की तरह कायँ करती है । वैक्यूम क्लीनर भौतिक कचरा ,धूल ,मिट्टी खींच लेता है । ठीक इसी प्रकार से , स्वामीजी की देह हजारों लाखों साधकों / लोगों के विचार रूपी दोष शोषित कर लेती है। देह....... कर लेती है, कहना गलत होगा क्योंकि यह प्रक्रिया घटित होती है । स्वामी जी का आभामंडल अत्यंत विशाल है। अंतः कार्यक्रम में पधारा हुआ लाखों का जनसमूह भी  उनके आभामंडल में ही होता है । इस प्रकार आभामंडल में बैठे हुए लाखों लोगों के विचार , दोष दूर होते हैं । स्वामी जी के पास देहरुपी थैली एक ही है । सभी के आभामंडल के दोष स्वामी जी के स्थुल शरीर सानिध्य में स्वामी जी के आभामंडल में स्थानांतरित हो जाते है । जब स्वामी जी को एकांत मिलता है , तब ध्यान द्वारा वे अपना आभामंडल स्वच्छ कर देते हैं । सो...

मोक्ष यानी प्रकृति के साथ समरसता स्थापित करना

मेरे इस शरीर के माध्यम से कार्य कम होने वाला है। मेरे शरीर के त्यागने के बाद ही मुख्य कार्य प्रारंभ होगा। जिस प्रकार आँखों के पास पुस्तक हो तो पढ़ने नहीं आती , आँखों से १|| फुट दूर रखकर ही पढ़ने आती हैं , वैसा ही है। मुझे भी समझने के लिए भी मुझे साधकों से शरीर से दूर जाना होगा। जब मैं शरीर से दूर जाऊँगा , तभी साधकों को मैं अपने करीब लाऊँगा। मेरे और मेरे साधकों के बीच यह शरीर रूपी एक दिवार है , वह गिर जाने के बाद ही वे मुझे पूर्णतः जान पाएँगे , समझ पाएँगे - जो मेरे अपने हैं, वो तो सात समुद्र पार से भी मेरी समाधि कि ओर खिंचकर चले आएँगे सारी दूरियाँ समाप्त हो जाएँगी। जन्मों -जन्मों से मेरी मोक्ष प्रदान करने की इच्छा और ७००-८०० सालों से हिमालय के सद्गुरुओं की माध्यम की खोज , इन दोनों का बड़ा अच्छा संगम इस समय ही हो पाया है। मेरे इस जिबनकाल में तो बस् , गुरुकार्य का प्रारंभ मात्र है। मुख्य गुरुकार्य तो मुझे सूक्ष्म रूप में करना होगा, जो इस जीवनकाल के बाद ही प्रारंभ होगा। इसलिए मुझे यह सब बातों मेरे गुरूओं ने समझाई हुई हैं। यही कारण है , मुझे इस गुरुकार्य की कोई जल्दी नहीं है। बहुत ही कम ...

कर्म

कोई किसी को कभी भी सुखी नही कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म से सुखी या दुखी होता है। भले ही वह आपका अपना बच्चा ही क्यों न हो। आप अपने बच्चे को क्या सही है , क्या गलत है उतना बताने का अपना कर्तव्य करे, बस यही आपके हाथ मे है। बच्चा भी एक आत्मा है। वह भी अपने कर्म के भोग भोगने ही जन्मा है। यह सदैव याद रखो तो ही आप अपने जीवन मे मुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकते हो।         ✍..बाबा स्वामी  

चित्तशक्ति का विश्वविद्यालय

 शरीर  के  सानिध्य  मेँ  आकर  निर्जीव  वस्तुएँ  भी  सजीव  हो  जाती  हैं  तो  उस  शरीर  के  भीतर  की  हड्डियाँ  किस  गहन  स्थिती  तक  पहुँच  गई  होंगी ! इन  हड्डियों  से  युक्त  "समाधिस्थल " भविष्य  मेँ  चित्तशक्ति  का  विश्वविद्यालय  बनेगा ।* *✍...बाबा स्वामी*       

पिण्डदोष

पिण्डदोष यह दोष आया ही कैसे? पिछले जन्म में जो कुछ भी हुआ उसमें मैंने क्या किया था? कुछ भी तो नहीं! जिसने ऐसा कृत्य किया, दोष उसका था। मैं बेकार ही दोषों का टोकरा सिर पर लेकर जीती रही। गुरू सान्निध्य की इच्छा और दोषों का बोझ ये दो कारण थे जिस कारण मुझे मोक्ष प्राप्ति न हो सकी। काश उस जन्म में मैंने केवल साधना की होती! काश मैंने कोई इच्छा न की होती - मैं मूर्ख थी! मुझे लगा था, गुरू सान्निध्य से मोक्ष प्राप्ति होगी। शायद जानती न थी कि गुरु सान्निध्य मोक्ष मार्ग तक हमें पहुँचाता है, ध्यान साधना करने को प्रेरित करता है किंतु साधना स्वयं करनी होती है, मोक्ष की स्थिती साधना से ही संभव है। मुझे स्थूल रूप से गुरूदेव से मोह हो गया था, शायद तभी तो साधना करके भी अटक गई, मोक्ष मार्ग पर बढ ना सकी। तो क्या यह जन्म लेने के लिए मैंने ढाई हजार वर्ष इंतजार किया. . . ..पूरे ढाई हजार वर्ष ! ! ! क्योंकी गौतम बुध्ध को हुए ढाई हजार वर्ष तो हो ही चुके होंगे। *पूज्या गुरूमाँ* *मूल स्त्रोत : माँ - पुष्प २* *पृष्ठ क्रमांक २६२-२६३*

परमात्मा सबकी माँ

"परमात्मा सबकी माँ है | परमात्मा की भाषा चैतन्य की भाषा है | परमात्मा का धर्म मनुष्य धर्म है | परमात्मा सभी मनुष्यों से बात करना चाहता है ;बस मनुष्य जब तक अपने शरीर से निर्मित विचारों पर नियंत्रण नहीं करता ,तब तक परमात्मा की चैतन्य की भाषा समझ नहीं सकता है | इसलिए निर्विचारिता आवश्यक है और निर्विचारिता के लिए 'ध्यान ' आवश्यक है | ध्यान मनुष्य को जगाएगा और इस सन्देश को सुनने योग्य बनाएगा | " *हि.स.यो.१/२९३ *

आज से एक निर्णय करो

"आप आज से एक निर्णय करो, किसी की भी बुराई नहीं करोगे और न किसी की बुराई सुनोगे .. क्योंकि दोनों में चित्त गंदा होता है | और न बुरा देखोगे... आप कितना भी ध्यान करो, पर अगर बोलना, सुनना और देखने वाली खिड़कियाँ आपकी खुली हैं, तो आपका चित्त पवित्र नहीं हो सकता | आप आपके चित्त को भीतर ही रखो तो ज्यादा अच्छा होगा और जो लोग आपके चित्त को गंदा करते हैं, ऐसे लोगों से दूर ही रहो | क्योंकि चित्त का खेल साँप-सीढ़ी के खेल जैसा है | चित्त शुद्ध करने में दिन लगते हैं और गंदा होने में एक क्षण ही काफी है |" *('आत्मेश्वर', बारहवें अनुष्ठान के संदेश, पेज-61)*

स्त्री का प्रेम तथा उसका समर्पण उसकी कमजोरी नहीं ,

 "स्त्री का प्रेम तथा उसका समर्पण उसकी कमजोरी नहीं , उसकी शक्ति होती है । जैसे लताएँ वृक्ष के सहारे ऊपर चढ़ती है । वृक्ष ही लता को सँभालना है किंतु आँधी आने पर स्थिर रहने में सहायता प्रदान करती है । जब भी दुष्ट लोग स्त्री के समक्ष स्वयं को दुर्बल महसूस करते हैं , तब वे उस स्त्री का चरित्र हनन करने का प्रयास करते है ।"         गुरु माँ 

सहस्त्रार चक्र

जब चित्त सहस्त्रार चक्र पर रखकर बोलूँगा तो शरीर के सभी चकों का चैतन्य वाणी में बहेगा और यही मेरे प्रवचन में अनुभव होता है। और पुस्तकों में चैतन्य नहीं होता , ऐसा नहीं है। जो पुस्तकें सहस्रार पर चित्त रखकर लिखी गई , यानी जो पुस्तकें मनुष्य ने लिखी नहीं हैं, परमात्मा की शक्ति ने मनुष्य के माध्यम से लिखी हैं , उन पुस्तकों में भी चैतन्य होता है। प्रश्न यह कि ऐसी पुस्तकें कितनी हैं? और कितनी मनुष्य पढ़ता है ?  वे बोलो , हि. का. स.भाग - ६ -१४७

मोक्ष भी शरीर की एक भावदशा

मोक्ष भी शरीर की एक भावदशा है | कोई बंधा ही नहीं है तो मुक्तता कैसी ! वास्तव में, बँधा है यह  भ्रम है और भ्रम की स्तिथि से हमे अपने आपको मुक्त करना होता है |-- मोक्ष की स्तिथि ध्यान में प्राप्त हो जाने के बाद लगता है - मैं तो मुक्त ही था | केवल 'मैं ' का अहंकार मुझे भ्रमित कर रहा था की मैं बंधन में हूँ और मुझे मुक्त होना है | प्रत्येक मनुष्य मुक्त है लेकिन प्रत्येक मनुष्य अपने अहंकार के कारण समझता है - मैं बंधन में हूँ | और यह भ्रम ही जीवनभर बना रहता है | आत्मा कभी बंधन में होती ही नहीं है | केवल एक भ्रम की दशा है और उसी भ्रम की दशा के कारण मनुष्य में शरीर के विकार निर्माण होते हैं और वे विकार मनुष्य की मृत्यु तक बने रहते हैं | हि.स.यो.5/443  
सामान्यत : जिस व्यक्ति भीतर घाव  होते हैं ,वही दूसरों को भी घाव देता है | यानी वह दूसरे को घाव देकर कहीं ,अपने ही घाव को कुरेदता रहता है | यानि अपने प्रति भी वह हिंसक ही है | और जिसके ...

आपको अगर अपनी आध्यात्मिक स्थिति कैसी है

आपको अगर अपनी आध्यात्मिक स्थिति कैसी है यह जानना है तो आप देखो आपके संबंध दूसरों से कैसे हैं। आपके संबंध सबसे एक जैसे होने चाहिए। ना किसी से कम., ना किसीसे ज्यादा। बोलते हैं ...

पूर्ण आत्मा बनो

आप वो पूर्ण आत्मा बनो जिसका ध्यान कराना ना पडे, जिसका ध्यान स्वयं ही लग जाये। आप वो बन सकते हो मुझे पूर्ण विश्वास है। आप सबकी हिस्टरी, जोग्राफी मुझे मालूम है। आपका पुरा डेटा मेरे पास है। और उसिके आधारपे कह रहा हूं यहा तक पहुचना एक नामुमकीन कार्य था जो आपके जीवन में हुआ है,  यहा किसींको बुलाकर पहुचाया नही जा सकता। यहा किसींको पकडके भी नहीं लाया जा सकता, यहा पहूचने के लिये भी एक सिद्धी चाहीये, पूर्व जन्म के कर्म चाहीये, उन कर्मोके कारण आप यहा तक पहूचे हो । इसका अर्थ है की आप एक पुण्य आत्मा है, यह मुझे पता है आपको नहीं। आप एहसास करो की आप एक पुण्य आत्मा है। यह सोचना शूरु करदो, आपने जीवनमे जो बुरे लबादे ओढ रखे है सब उतरने लग जायेंगे। गुरुपूर्णिमा 2012

गुरु कें साथ सदैव गुरु की शक्तियाँ

गुरु  कें  साथ  सदैव  गुरु  की  शक्तियाँ  होती  है । बाधाएँ  आ  सकती  है  तो  केवल  और  केवल  साधकों  कें  ही  माध्यम  से । आप यहाँ  से  कुछ  न  प्राप्त  कर  सको  तो  कम -से -कम  दूसरों  को  कुछ  पाने  दो ! *पूज्य स्वामीजी* *२७ /२ / २००१४*

आत्मसूख

सद्गुरु को मिलना , उससे आत्मसाक्षात्कार पाना , बाद में अंतर्मुखी होना , अपने -आपको ही गुरु बनाना और अपने ही भीतर परमात्मा को पाना , यह क्रमबद्ध प्रगति की दिशाएँ हैं , लेकिन यह एक ही जन्म में हो यह संभव नहीं हैं । इसलिए , कई साधक आत्मसाक्षात्कार पाकर भी भटकते रहते हैं । मूझे उसका कोई आश्चर्य नहीँ होता हैं । क्योंकि एक ही जन्म में सब कुछ हों जाए ऐसा नहीँ होता हैं । ....* *✍...पूज्य स्वामीजी* *[ आत्मेश्वर ]*

नकारात्मक शक्तियों का मुख्य 'उद्देश' 

"नकारात्मक शक्तियों का मुख्य 'उद्देश'  आपको सामूहिकता से 'अलग' करना है | ताकि वह आपका शिकार आसानी से कर सके | यह बिलकुल जंगल जैसा है | जंगल में शेर जब भी किसी हिरन का शिकार करता है त...

आत्मसूख

स्त्री 'की शक्त्तियों का ज्ञान, स्त्रीयों के पूर्व पुरुष को हो गया था। शक्तियों के कारण अपने ऊपर उनका वर्चस्व न हो जाए, यह जानकर मनुष्य पुरुषों ने स्त्रियों को दबाना प्रारंभ किया और आज हजारों सालों से स्त्री-शक्त्ति का दमन हो रहा है और अनजाने में  समाज में एक असन्तुलन का निर्माण हो रहा है।          " स्त्रीशक्त्ति "को सन्तुलन किए बिना समाज का संतुलित विकास संभव नहीं है। " स्त्री " पुरुष की पत्नी कम होती है, माता अधिक होती हैं हि. का.स.यो.(1)पेज 49/50H022

आत्मा को जानो और फिर परमात्मा को जानो

आत्मा को जानो और फिर परमात्मा को जानो। अपनी आत्मा को जाने बिना परमात्मा को जान ही नहीं सकते हैं। आत्मा को जाने बिना परमात्मा के पद पहुँच भी गए अपने पूर्वजन्म के कर्म के कारण तो भी , वहाँ जाकर भी इस माया के कारण भ्रमित हो जाओगे और फिर साँप और सीठी के खेल में भटक जाओगे। इसीलिए परमात्मा को पाने के पूर्व आत्मा को पाना आवश्यक है। हि. का.स.योग भाग ६ - ३३

एक आध्यात्मिक स्तर है जिस स्तर पर मूर्ति, धर्म, कर्मकांड छूट जाते हैं

एक आध्यात्मिक स्तर है जिस स्तर पर मूर्ति, धर्म, कर्मकांड छूट जाते हैं | वहाँ से इन आध्यात्मिक गुरुओं की आत्माओं का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है और वे स्वयं ही मदद करना प्रारम्भ कर देते हैं | लेकिन जबतक आप किसी मूर्ति से बंधे हो , किसी धर्म से बंधे हो तो आप उनके क्षेत्र में भी नहीं आते है  | मूर्ति की पूजा कर्मकांड के अंतर्गत ही आती है जो एकदम प्रायमरी ( प्राथमिक) कक्षा का ज्ञान है और प्रायमरी की कक्षा में कभी पी.एच.डी.का शिक्षक नहीं जाता है |     आत्मज्ञान पी.एच.डी. का ज्ञान है | वहीँ ये सब अधिकारी पुरुष मिलते हैं | मनुष्य धर्म ,मूर्ति ,मंदिर, हवन आदि कर्मकांडों से इतना बंधा हुआ है की इसके बिना केवल चित्त से परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है ,इसकी उसे कल्पना ही नहीं है | 'आत्मज्ञान' परमात्मा ने अपने माध्यम से आत्मा पर किया एक 'सुसंस्कार' है | उसी सुसंस्कार के बीज को , साधक को साधनारत रहकर वृक्ष बनाना होता है  | यह सुसंस्कार मनुष्य में धीरे धीरे 'आमूल' परिवर्तन ला देता है | आत्मज्ञान वह सत्य का ज्ञान है जिसके प्रकाश से जीवन बंधनमुक्त होना प्रारम्भ हो...