धन
धन एक निर्जीव साधन है । उसके रहने से कोई सूखी नहीं रह सकता औऱ उसके न रहने से कोई दुःखी नहीं रह सकता । सुख औऱ दुःख मन की मनोदशाएँ है । आपके मानने पर सुख है औऱ आपके मानने पर ही दुःख । आप परिस्थिति को स्वीकार कर लो तो ही सुख है , स्वीकार न करो तो दुःख है । कल दुःख धन का था , आज शरीर का दुःख है । याने दोनों ही नाषवान है । न किसी व्यक्ति को धन सुख दे सकता है , न शरीर सुख दे सकता है क्योंकि मैं न धन हूँ औऱ न शरीर हूँ । फिर ये दोनों जब मैं नहीं हूँ तो ये दोनों मुझे कैसे सूखी कर सकते है ? ये दोनों निर्जीव है , मिथ्या है क्योंकि मेरा अस्तित्व इनसे अलग है । मैं जान गया हूँ की मैं एक आत्मा हूँ । मैं शरीर औऱ धन नहीं हूँ । मुझे शरीर व धन सुख नहीं दे सकते , केवल आत्मा ही मुझे सुख दे सकती है । वही सच्चा सुख होगा । वह सुख आत्मसूख कहलाएगा ।
हि. का. स.यो.1
हि. का. स.यो.1
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