आत्मा की शुद्धता के बिना

"आत्मा की शुद्धता के बिना , आत्मा के पवित्रता के बिना शरीर के 'मैं' के अहंकार को समाप्त करना असंभव है | और उस 'मैं' के अहंकार के साथ कितना भी पुण्यकर्म करो , वह 'मैं' के अहंकार में वृद्धि ही करेगा |
'मैं' का अहंकार शरीर का एक सशक्त भाव है | और इस भाव के साथ कभी कोई पुण्यकर्म घटित हो ही नहीं सकता | और अगर हुआ तो वह केवल और केवल 'मैं' के अहंकार को ही बढ़ानेवाला होगा | और हम 'मैं' के अहंकार को कम करने का प्रयास करेंगे तो वह रूप बदलेगा |-- उसे अगर समाप्त करना है तो शरीरभाव को ही समाप्त करना होगा और फिर न शरीर भाव होगा और न शरीर का अहंकार |
लेकिन शरीर के अहंकार को सीधा समाप्त करने का प्रयास करोगे तो वह कभी समाप्त नहीं होगा | मान लो, शरीर एक वृक्ष है और 'मैं' का अहंकार उसका फल है | तो आप एक फल को नष्ट करोगे तो दूसरा फल आएगा और दूसरे फल को नष्ट करोगे तो तीसरा फल आएगा | याने जब तक वृक्ष हैं , तब तक फल आएंगे ही | इसलिए वृक्ष को ही समाप्त करने की आवश्यकता है |
आप जब 'मैं' के अहंकार को समाप्त करने के लिए प्रयत्न करते हैं , तब आपका चित्त उसी फल पर होता है | और आप उस फल को तो समाप्त कर देते हैं लेकिन तब तक दूसरे फल का निर्माण 'मैं' कर ही लेता है | और आपकी मेहनत, आपका समय ऐसे ही व्यर्थ हो जाता है | और 'मैं' का अहंकार रूपी फल समाप्त ही नहीं होता |- इससे अच्छा है शरीर भाव रूपी वृक्ष को ही समाप्त कर दो तो वह फल भी समाप्त होगा और नया फल भी नहीं तैयार होगा |-
अपने शरीर रूपी वृक्ष को " मैं एक पवित्र आत्मा हूँ ,मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ " - इस मंत्र के रसायन से समाप्त कर सकते हो | लेकिन इसमें भी सतत मंत्रजाप की आवश्यकता है | यह मंत्रजाप धीरे - धीरे हमारे शरीर भाव को समाप्त करता है |" 

हि.स.यो.६/५० 

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