जो आदिवासी अनपड़ लोग प्रकृति को करीब से जानते थे , उन आदिवासी लोगों ने इसे सर्वप्रथम सीखा है , उन्हें इसे ग्रहन करना एकदम सरल था। अब आपके डॉक्टर जैसे बुद्धि के प्रश्न पूछे रहे थे, ऐसे प्रश्न आदिवासियों के मन में नहीं आए, उन्हें ज्ञान ही नहीं था तो बुद्धि का तो प्रश्न ही नहीं था। वे तो एकदम अनपढ़ थे , लेकिन उन्हें प्रकृति का अनुभव था, क्या अच्छा है , क्या बुरा है , इसका ज्ञान था। उन्होंने केवल अपने प्रकृति के सान्निध्य के अनुभव के आधार पर ही अनुभूति बको प्राप्त किया। पृथ्वी को , आकाश को प्रार्थना वे तो पहले से हि करते थे , पहाड़ो को देवता मानते ही थे। पहाड़ो पर देवता वास करते हैं, यह उनको विश्वास था और इसी का लाभ मुझे मिला। मैं पहाड़ो से उतरा था , तो मैं भी देवताओं जैसे पवित्र हूँ जभी पहाड़ो पर जा सका , यह उनके मन की धारणा थी। चैतन्य का ज्ञान उन्हें पहले से ही था क्योंकि सारा जीवन ही प्रकृति की गोद में गया था। मैंने हँसते हुए कहा , मेरे गुरुदेव ने पहले मुझे नर्सरी को सीखने का अवसर दिया , अब इन डॉक्टरों को सिखाने का अवसर दिया। यानी नर्सरी , प्रायमरी , माध्यमिक , हायस्कूल , कॉलेज , एक -एक उच्च कक्षा के लोग इसमें आते गए और ध्यान सीखते गए।

लेकिन ये सभी प्रकृति के गोद में अपनी शिक्षा लिए हुए थे, अब आगे शायद समाज में वजन होगा, इससे भी अधिक बुद्धिमान लोग इस ध्यान पद्धति को सीखेंगे। अलग-अलग देशों के लोग सीखेंगे। सारी दुनिया के लोग सीखेंगे। इस कार्य की विशालता बहुत् बड़ी है , इसलिए उस सिर पर कार्य यहाँ रहकर नहीं हो सकता है । गुरुदेव भले समाज को कोयले की खदान बोलें,
भाग - ६ -३५१.

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