मोक्ष यानी प्रकृति के साथ समरसता स्थापित करना


मेरे इस शरीर के माध्यम से कार्य कम होने वाला है। मेरे शरीर के त्यागने के बाद ही मुख्य कार्य प्रारंभ होगा। जिस प्रकार आँखों के पास पुस्तक हो तो पढ़ने नहीं आती , आँखों से १|| फुट दूर रखकर ही पढ़ने आती हैं , वैसा ही है। मुझे भी समझने के लिए भी मुझे साधकों से शरीर से दूर जाना होगा। जब मैं शरीर से दूर जाऊँगा , तभी साधकों को मैं अपने करीब लाऊँगा। मेरे और मेरे साधकों के बीच यह शरीर रूपी एक दिवार है , वह गिर जाने के बाद ही वे मुझे पूर्णतः जान पाएँगे , समझ पाएँगे - जो मेरे अपने हैं, वो तो सात समुद्र पार से भी मेरी समाधि कि ओर खिंचकर चले आएँगे सारी दूरियाँ समाप्त हो जाएँगी।
जन्मों -जन्मों से मेरी मोक्ष प्रदान करने की इच्छा और ७००-८०० सालों से हिमालय के सद्गुरुओं की माध्यम की खोज , इन दोनों का बड़ा अच्छा संगम इस समय ही हो पाया है। मेरे इस जिबनकाल में तो बस् , गुरुकार्य का प्रारंभ मात्र है। मुख्य गुरुकार्य तो मुझे सूक्ष्म रूप में करना होगा, जो इस जीवनकाल के बाद ही प्रारंभ होगा। इसलिए मुझे यह सब बातों मेरे गुरूओं ने समझाई हुई हैं। यही कारण है , मुझे इस गुरुकार्य की कोई जल्दी नहीं है। बहुत ही कम भाग्यशाली होंगे जो मेरे जीवनकाल में मुझ तक पहुँच पाएँगे, मुझे जान पाएँगे। और इसका कारण है , यह सामान्य-सा दिखने वाला शरीर। मुझे साधकों ने देखना नहीं चाहिए बल्कि मुझे अनुभव करना चाहिए। मैं देखने की चीज नहीं हूँ ; अनुभव करने का माध्यम हूँ । अब यह कितना भी समझाया , कितने  समझ पाएँगे !
मोक्ष यानी प्रकृति के साथ समरसता स्थापित करना है । प्रकृति की कोई जाति नहीं होती, प्रकृति की भाषा मौन ।

हि. का.स.भाग - ६ -३३२

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