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••◆ मैं तो केवल आपको समय दे सकता हूँ , पर आध्यात्मिक ज्ञान नहीं दे सकता। वह इसलिए नहीं दे सकता क्योंकि वह मैंने मेरे गुरुओं से 'पाया' है , गुरुओं ने मुझे 'दिया' नहीं है। वह मैं भी नहीं दे सकता। हाँ , आप मुझसे 'पा' सकते हैं , पर मैं 'दे' नहीं सकता।

••◆ यह एक सीमा है। इस आध्यात्मिक सिमा का ज्ञान हुआ, "मैं" अपना आध्यात्मिक ज्ञान अपने जीवनकाल मैं स्वयं देना भी चाहूँ , तो भी दे नहीं सकता क्योंकि वह "मैं" को मिला नहीं है ; में स्वयं देना भी चाहूँ , तो भी दे नहीं सकता क्योंकि वह "मैं" को मिला नहीं है ; आत्मा ने परमात्मा से पाया है।

••◆ जब तक गुरु में परमात्मा को पाते नहीं हैं , तब तक गुरु से वह आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है।

••◆ अपने गुरु में परमात्मा को पाना तो शिष्य का कार्यक्षेत्र है। शिष्य वह पाए या नहीं , यह तो शिष्य के समर्पण पर निर्भर है।

••◆ समर्पण भी किया नहीं जाता , हो जाता है।

••◆ मैंने मेरे गुरु में परमात्मा को पाया , तभी मैंने मेरे गुरुओं को परमात्मा माना और फिर सारी खोज समाप्त हो गई।

••◆ जब तक आप अपनी आध्यात्मिक स्थिति वैसी नहीं बनाते और अपने सद्गुरु में परमात्मा नहीं पाते , तब तक यह आध्यात्मिक ज्ञान आपको नहीं मिल सकता है।

••◆ सद्गुरु कितना भी देना चाहे , वह दे नहीं सकता , जब तक कि उसे सुपात्र शिष्य न मिल जाए।

••◆ अब तो बाकी बचा जीवन उन शिष्यों के इंतजार में ही कटेगा , ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि अब जीवन में पाने के लिए कुछ रह ही नहीं गया है। बस , सबकुछ देने की इच्छा है। पर इच्छा करके दे नहीं सकता। जब तक सुपात्र शिष्य नहीं मिलेंगे वह दिया नहीं जा सकता।

••◆ इस आद्यात्मिक ज्ञान के खजाने का द्वार खोलकर मैं आँखों की पलकें बिछाकर इंतजार कर रहा हूँ - जो आए और मेरे खजाने को लूटकर ले जाए जो लुटाने के लिए मैं बैठा हूँ।

••◆ जब तक वे नहीं आते , मेरे हाथ में कुछ नहीं है। है तो बस इंतजार , इंतजार और इंतजार . . . . . .

सुपात्र शिष्य के इंतजार में . . . . . .

आपका ,
बाबा स्वामी

मधुचैतन्य २००९
जुलाई, अगस्त, सितंबर

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