๐ŸŒบเคถाเคถ्เคตเคค เคœ्เคžाเคจ๐ŸŒบ

••● हमारे भीतर ही एक जगत है , हमारे भीतर ही ज्ञान का भण्डार भरा पड़ा है। सब ज्ञान तो हमारे ही भीतर होता है।

••● *“ मैं कौन हूँ ” यह जानना ही सबसे बड़ा ज्ञान है।* वह एक बार जान लिया तो बाकी सब ज्ञान हमें वहीं से ही होना प्रारंभ हो जाता है।

••● *हम अपने-आपको छोड़कर सारी दुनिया को जानने की कोशिश करते हैं। और जिसे हम 'जानना' कहते हैं , वास्तव में वह केवल उस विषय की जानकारी ही होती है।*

••● यानी *जिसे हम 'ज्ञान' समझते हैं , वह तो केवल जानकारी ही है और जानकारी सदैव 'भूतकाल' की होती है।*

••● यही तो हमारे आध्यात्मिक क्षेत्र में हो रहा है। हम जिसे 'आध्यात्मिक ज्ञान' कहते हैं , वह सब पुस्तकों से प्राप्त जानकारी से अधिक कुछ नहीं है और जानकारी सदैव 'भूतकाल' की होती है। जानकारी में उनके अनुभव हैं , उनकी अनुभूतियाँ हैं। वे उनके समय की हैं , वे संदेश , वे उपदेश उस समय के हैं जबकि बुद्धि तो पिछले दस सालों में अत्याधिक ही विकसित हो गई है तो हजारों सालों में बुद्धि कितनी विकसित हो गई होगी। तो हजारों साल पुरानी जानकारी से 'आध्यात्मिक प्रगति' कैसे होगी ?

••● एक लायब्रेरी (पुस्तकालय) में काम करनेवाला कर्मचारी रोज हजारों पुस्तकें , जो लोग नीचे रखते हैं , वह उठाकर ढोता है और अलमारियों में रख देता है। तो केवल ढोने से वह 'विद्वान' हो जाएगा क्या ? विद्वान होने के लिए उन पुस्तकों को पढ़ना होगा।

••● ठीक वैसा ही है - *हम केवल पुस्तकों की जीवनभर ढोते रहे तो ज्ञान कब प्राप्त करेंगे ? क्योंकि पुस्तकों से केवल और केवल जानकारी ही मिलेगी , 'ज्ञान' नहीं।* और यह जानकारी आपके अंतिम क्षण तक रहेगी नहीं। आप बूढ़े हो जाओगे तो यह सब जानकारी भी भूल जाओगे। क्योंकि यह जानकारी ही सत्य नहीं है , शाश्वत नहीं है।

••● *'ज्ञान' शाश्वत होता है। इसे आप कभी भूल ही नहीं सकते। आपका प्राप्त ज्ञान आपकी अंतिम साँस तक बना रहेगा।* इस ज्ञान की विस्मृति नहीं हो सकती क्योंकि यह आपका अपना है , आपने पाया हुआ है , यह बाहर से ली हुई जानकारी नहीं है।

••● *इस 'ज्ञान' के क्षेत्र में कोई किसी का गुरु नहीं है और न कोई किसी का शिष्य है। गुरु हो या शिष्य , दोनों में ही वही ज्ञान समान रूप से बहता है।*

••● अंतर है *'अज्ञान'* का , अंतर है *'देहभाव'* का , *'शरीरभाव'* का। *गुरु में शरीरभाव नहीं है , शिष्य में शरीरभाव विद्यमान है। यह शरीरभाव ही 'अज्ञान' है कि मैं एक शरीर हूँ।*

*🌹परमपूज्य श्री शिवकृपानंद स्वामीजी🌹*

*।। सद्गुरु वाणी ।।*
(पृष्ठ : ६८,६९)

Comments

Popular posts from this blog

Subtle Body (Sukshma Sharir) of Sadguru Shree Shivkrupanand Swami

เคชूเคฐ्เคตเคœเคจ्เคฎ เค•े เค•เคฐ्เคฎों เค•ा เคช्เคฐเคญाเคต เค‡เคธ เคœเคจ्เคฎ เคชเคฐ เคญी เคนोเคคा เคนै