सुख बॉंटने से बढता हैं।
अब जब साधकों को देखता हूँ, तो साधक अनुभव-कथन में बडे कंजूस हैं। मेरे पास बडी-बडी समस्या ले कर आते हैं। और जब समस्या दूर हो जाती हैं, तो मुझे भी नही बताते - समस्या दूर हो गई। फिर मै ही अनजान बनकर उनको उनकी समस्या के बारे में पुछ्ता हूँ, तो बोलते हैं, "स्वामीजी, वह समस्या कब दूर हो गई, वह हमें पता ही ना चला।" यानी चैतन्य का अनुभव मुझसे भी नहीं बॉंटते हैं। जब हम दहाड मार-मार कर दु:ख बॉंटते हैं, तो सुख भी बॉंटना चाहिए। दुःख बॉंटने से कम होता हैं और सुख बॉंटने से बढता हैं।
मैने मेरे जीवन में सुख को बॉंटा हैं। जितना बॉंटता हूँ उतना बढता हैं। क्योंकि जब हम सुख को बॉंटते हैं, तब हमारा चित्त सुख पर होता हैं और हमारे शरीर के आस-पास सुख की ऊर्जा-शक्ति-बढती हैं। और बढती हुई सुख की ऊर्जा-शक्ति हमारी आध्यात्मिक प्रगती में सहायक होती हैं ।
*मधुचैतन्य-अप्रैल, मई,जून-2005*
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