हिमालय
••● हिमालय की अपनी एक निजी संस्कृति है , एक आभामंडल है , एक वातावरण है। वातावरण अनेक गुरुओं , संतों , महात्माओं , कैवल्यकुंभक योगियों के कारण सदैव बना ही रहता है। हिमालय में जाने का मार्ग एकांकी मार्ग है।
••● एकांकी से आशय , केवल जाने का रास्ता है वापस आने का कोई रास्ता ही नहीं है , मार्ग नहीं है । क्योंकि वहाँ का अपना एक अलग विश्व है , अपनी एक अलग दुनिया है।
••● हिमालय में जो लोग जाते हैं , वे यह दुनिया छोड़कर उस दुनिया में जाते ही इसलिए हैं कि इस दुनिया में नहीं रहना है। वापस आने का प्रश्न ही नहीं है।
••● प्रत्येक का लक्ष्य गौरीशंकर का वह उच्च शिखर होता है , जहाँ पहुँचने का मार्ग , जहाँ जाने का मार्ग प्रत्येक आत्मा समय-समय पर खोजती ही रहती है।
••● जिस किसी आत्मा को अध्यात्म की प्यास लगती है , हिमालय का आकर्षण उसे अपनी ओर खींच ही लेता है। वहाँ पर जो पाने के लिए जाते हैं , वहाँ पाकर वहीं के हो जाते हैं।
••● पहली बार कोई सद्गुरु वहाँ देने की इच्छा से गया था , वहाँ बाँटने की इच्छा से गया था। इसीलिए उसके बड़े हंडे को देखते हुए , देने की शुद्ध इच्छा को देखते हुए प्रत्येक गुरु ने उनके पास जो कुछ था , वह सबकुछ न्यौछावर कर दिया , सबकुछ डाल दिया।
••● क्योंकि वे भी चाहते थे कि उनका ज्ञान , उनकी अनुभूति उन आत्माओं तक पहुँचे जो आत्माएँ हिमालय तक नहीं पहुँच सकतीं , हिमालय तक नहीं जा सकतीं।
••● इसीलिए आज हिमालय ही उन तक आया है। आज उसके सान्निध्य का ,वहाँ के वातावरण का , अनुभूतिया का अनुभव आप भी करके देख लो। उसे देखा नहीं जा सकता , उस अनुभव को सुना नहीं जा सकता , उस अनुभव को सुनाया नहीं जा सकता , उस अनुभव को केवल अनुभव कराया जा सकता है।
••● उस हिमालय के वातावरण में सद्गुरु का सानिध्य , सदगुरु का आभामंडल अनुभव करना , अनुभूति करना जीवन का एक विरला ही अनुभव है।
••● सदगुरु का अंग प्रत्यंग कुछ कहते रहता है , कुछ बोलते रहता है , कुछ अनुभव कराते रहता है।
••● उसका भव्य कपाल एक आनंद की अनुभूति को अनुभव कराते रहता है।
••● उसके कान सबकुछ सुनते रहते है , सबकुछ जानते रहते हैं। छोटी से छोटी घटना को , छोटी से छोटी बात को आत्मसात करते रहते है।
••● उसकी आँखें एक अथांग (अथाह) सागर की तरह अनुभव होती हैं। इसका दूसरा सिरा खोजना भी मुश्किल हो जाता है।
••● उसके होंठ कुछ न बोलते हुए भी बहुत कुछ बोलते रहते हैं।
••● उसके बाल चैतन्य को सदैव प्रवाहित करते रहते हैं।
••● उसके कंधे मानो सारी मनुष्यता का बोझ ही अपने ऊपर लिए हुए महसूस होते हैं।
••● और उसके हृदय में सबके प्रति एक-सा भाव है , समान भाव है , इसलिए वह जानता है। सब में ही मैं हूँ और मुझ में ही सब हैं।
••● सद्गुरु का पेट एक समाधान का , संतोष का , तृप्ति का एहसास दिलाते रहता है।
••● उसके पैर जो सदैव अपने साधकों को गोद में लेकर चलते ही रहते हैं , चलते ही रहते हैं।
••● उसकी अंगुलियों सारे संसार को नचाने की शक्ति रखती हैं।
••● ऐसे सद्गुरु के सान्निध्य में , ऐसे सद्गुरु के साथ एक क्षण बैठना आत्मा को पुलकित कर देता है। ऐसे गुरुओं के केवल साथ में रहने मात्र से जो आशीर्वाद , जो ब्लेसिंग्स मिले , उन्हीं के कारण यह कार्य इतनी तेजी के साथ विकसित हो सका। मैं तो केवल एक बाँटने की इच्छा लेकर चला था।
🌹परम पूज्य श्री शिवकृपानंद स्वामीजी🌹
गुरुपूर्णिमा महोत्सव २००८ - सूरत
मधुचैतन्य (पृष्ठ : १६,१७)
जुलाई, अगस्त, सितंबर - २००८
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