गुरुलोक
एक दिन आँख बंद किए ही बोल रहे थे , अरे , मैं गुरुलोक पहुँच गया हूँ । यहाँ पर सब गुरुओं की शक्तियाँ विद्यमान हैं । जितने गुरु इस धरती पर अवतरित हुए और उन्होंने जो साधना की , उस साधना से निर्मित शक्तियाँ गुरुलोक में रह गई हैं। गुरुओं का शरीर तो चला गया पर उनकी शक्तियाँ बाकी रह गई हैं। वे सब मेला लगाकर बैठी हैं और मैं भी उस मेले में शामिल हो गया हूँ। वे सब गुरुलोक से देख रही हैं कि कौन मनुष्य उनके किए कार्यों को कर रहा है , कौन मनुष्य समाज के सुख और शांति के लिए प्रार्थना कर रहा है , कौन मनुष्य समाज का कल्याण करना चाहता है , कौन मनुष्य ध्यान कर रहा है ? जो मनुष्य ध्यान कर रहा है , वह ध्यान में अपने अस्तित्व को विलीन कर रहा है ?
जो मनुष्य अपने आपको विलीन कर रहा है , उस मनुष्य को माध्यम बनाकर वे शक्तियाँ कार्य कर रही हैं। जब तक मनुष्य में ‘ अहंकार ' है , “ मैं ' का भाव है , तब तक वह आध्यात्मिक शक्तियों का कोई कार्य कर ही नहीं सकता। वह अहंकार के साथ ऐसे ही कार्य कर सकता है , जिन्हें वह दिखा सके । किन्तु उससे आध्यात्मिक कार्य या ऐसे कार्य कभी नहीं हो सकेंगे जिनसे अनुभूति प्राप्त हो। क्योंकि आध्यात्मिक कार्य किए नहीं जाते हैं , वे हो जाते है । मैं गुरुलोक पहुँच गया हूँ और अब मुझे मेरा शरीर साफ - साफ दिखाई दे रहा है। वहाँ से शरीर को देखकर शर्म आती है कि कितना नगण्य अस्तित्व मेरा है और मनुष्य कितना अहंकार अपने - आप पर करता है ! एक कुएँ के मेंढ़क की तरह अपने आसपास के विश्व को विश्व समझता था । अरे , विश्व बहुत बड़ा है । यह उसे तब पता चला , जब वह मेंढ़क समुद्र में आ गया । एक मनुष्य की हैसियत एक छोटे कीटक से भी छोटी है ।
हिमालय का समर्पण योग भाग - १ - ३५९
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