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••◆ यह ध्यान पद्धति करीब ८०० साल पुरानी है।

••◆ एक ओर जहाँ संत ज्ञानेश्वरजी ने समाज में ज्ञानेश्वरी में कुण्डलिनी योग के बारे में प्रथम बार समाज को अवगत कराया। इसके पहले समाज को , सर्वसामान्य को इसकी जानकारी नहीं थी। लेकिन उन्होंने केवल कुण्डलिनी शक्ति योग क्या है , इस योग की पद्धति से मनुष्य को क्या फायदे हैं , वह बताया है। लेकिन उन्होंने ये कैसे हो सकता है , इसके बारे में समाज में नहीं बताया क्योंकि वह समय उचित नहीं था।

••◆ *प्रत्येक ‘माध्यम' अपनी एक अधिकृतता की सीमा में ही बँधा होता है। उस सीमा में रहकर ही कार्य करता है।*

••◆ ठीक उसी समय हिमालय में ऋषि-मुनि एक ध्यानयोग की पद्धति को सँभालकर रखने का प्रयास कर रहे थे। उन ऋषि-मुनियों ने अपना सारा आयुष्य इस ध्यान की पद्धति को बचाने में और विकसित कर अगली पीढ़ी तक पहुँचाने में लगाया है।

••◆ *श्री संत ज्ञानेश्वरजी हों या उनके समकालीन , हिमालय में बैठे मुनि हो , दोनों का लक्ष्य सर्वसामान्य मनुष्य तक ध्यानयोग को पहुँचाना था। सारे मनुष्य समाज को ही उसका लाभ मिले , यह था। दोनों ने अपने-अपने स्थानों पर रहकर ही कार्य किया।*

••◆ हिमालय के मुनियों को , यह पद्धति सर्वसामान्य मनुष्य तक कैसे पहुँचे , यह प्रश्न था क्योंकि जो स्वयं साधना करके यह प्राप्त करता था , वह हिमालय का ही वासी हो जाता था। यानी वह मुनि जो समाज का त्याग करके ही हिमालय आया था। यानी वह , वह ध्यानयोग सीख भी लेता था , विकसित भी कर लेता था लेकिन उसका लक्ष्य वहीं रहना होता तो वह वापस समाज में नहीं जाता था।

••◆ *सारे ही मुनि आध्यात्मिकता के उच्च शिखर पर थे और कोई भी नीचे (समाज में) जाना नहीं चाहता था। लेकिन सभी इच्छा कर रहे थे कि नीचे के भी लोगों को ऊपर आने का अवसर मिले। लेकिन जब तक कोई समाज में नहीं जाता , तब तक समाज में यह मार्ग का पता ही नहीं चलता।*

••◆ यह समस्या सालों से चली आ रही थी और समस्या का निदान यह निकाला गया कि समाज के सर्वसामान्य मनुष्य तक यह पहुँचाना है। तो समाज में ही एक सर्वसामान्य मनुष्य के माध्यम का जन्म कराया जाए।

••◆ *एक ऐसी आत्मा को समाज में जन्म लेने के लिए आह्वान किया जाए जिसका जीवन का उद्देश्य पाना नहीं , केवल देना ही हो !* और फिर ऐसी आत्मा को हम हमारी तपस्या से प्राप्त ज्ञान के भण्डार को सौंप देंगे। और उस आत्मा का स्वभाव ही बाँटना है तो वह अपने जीवन में बाँटते ही फिरेगा और वह माध्यम सारे विश्व में ध्यानयोग के प्रसाद को विश्वभर में बाँटेगा।

••◆ *फिर सभी मुनियों ने मिलकर , सामूहिक रूप से जाकर हिमालय के ही एक वयोवृद्ध मुनि से , जो अपनी तपस्या में लीन थे , प्रार्थना की , "आप ही नीचे जाने की और नीचे जाकर यह ध्यान का मार्ग समाज को बताने की क्षमता रखते हैं। और आप चाहें तो यह कर सकते हैं।"*

••◆ लेकिन अपनी तपस्या से पूर्णत्व प्राप्त कर चुके मुनि से यह प्रार्थना करना ठीक वैसा ही था , जैसे इंद्रदेव ने दधीचि ऋषि से (प्रार्थना) की थी , “आप देहत्याग करें , मुझे आपके शरीर की अस्थियों से वज्र बनाना है।" वैसी ही यह प्रार्थना थी।

••◆ *उनकी प्रार्थना स्वीकार कर उन वयोवृद्ध मुनि ने अपनी तपस्या को छोड़कर केवल यह संकल्प के साथ प्राणत्याग किया कि केवल यह ज्ञान देने की इच्छा से ही मैं देह धारण करूँ।*

••◆ और बाद में उन वयोवृद्ध मुनि ने अपनी सारी शक्तियाँ अपने शिष्य श्री शिवबाबा को प्रदान कर दी थीं और कहा था *“जब मैं अगला जन्म लूँगा , तब , लाखों मनुष्यों की सामूहिकता को अनुभूति करा सकूँ , ऐसी शक्तियाँ , तपस्या से मैंने प्राप्त की हैं , वे मुझे मेरे अगले जन्म में सौंपना। इन शक्तियों को सँभालकर रखने का गुरुकार्य आज से मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ।"*

••◆ *वे वयोवृद्ध मुनि ही अपने अगले जन्म में माध्यम बने और श्री शिवबाबा ने वही , उनकी आध्यात्मिक शक्तियों की धरोहर उन्हें सौंपी।*

••◆ *ऐसी योजना के तहत ‘माध्यम' ने शरीर को धारण किया है।* यानी 'माध्यम' ने कोई साधना नहीं की , कोई तपस्या नहीं की। केवल गुरु सानिध्य प्राप्त किया है। और गुरुसानिध्य में सारा ज्ञान माध्यम में आ गया है। और बाँटना उसका स्वभाव है। इसलिए बाँट रहा है।

••◆ *इस प्रकार से माध्यम के माध्यम से यह ज्ञान सर्वसामान्य मनुष्य तक पहुँचा है। और आज लाखों की संख्या में लोग इस ध्यानयोग की पद्धति को अपना रहे हैं। और उस माध्यम से विश्व स्तर पर समर्पण ध्यानयोग के ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो पाया।*

••◆ यह सारा समर्पण ध्यानयोग का इतिहास है। यह आपको केवल इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि अनुभूति के ज्ञान के पीछे भी ८०० साल की परंपरा है , संस्कृति है।

*🌹परम पूज्य श्री शिवकृपानंद स्वामीजी🌹*

*।। समग्र योग ।।*
(पृष्ठ : ९३-९७)

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