ये साहित्य वाले भी मुझे अलग-अलग प्रश्न करते रहते हैं, उन्हीं प्रश्नों के उत्तर आज सार्वजनिक रूप-से देता हूँ।
ये साहित्य वाले भी मुझे अलग-अलग प्रश्न करते रहते हैं, उन्हीं प्रश्नों के उत्तर आज सार्वजनिक रूप-से देता हूँ।
*पहली बात तो ये है कि जीवंत गुरु, जीवंत है। जीवंत गुरु जीवंत है यानी ? वो आज दस साल पहले क्या बोल रहा था, वो आज क्या बोल रहा है, वो अलग होगा। उसके बाद में हो सकता है आज से दस साल बाद और तीसरी बात बोलेंगे ।* कारण क्या है ? कारण ये है, जिस तरह से एक मालिक पौधे को जितनी आवश्यकता है, उतना ही पानी देता है। जैसे-जैसे पौधा बड़ा होता है, जैसे-जैसे वो वृक्ष बड़ा होता है, वैसे वो पानी का भी स्तर बड़ा करता है। ठीक उसी प्रकार से, सद्गुरु का भी होता है। सद्गुरु जीवंत है और जीवंत होने के कारण कभी भी एक जैसा कभी भी नहीं रहेगा, एक साथ अलग-अलग बातें करेगा, लेकिन वो समय के अनुसार बदलते रहती हैं। *जैसे आज से दस साल पहले लोगों को मैं बोलता था सब छोड़के गुरूकार्य करो, गुरूकार्य करो, गुरूकार्य करो।* क्यों बोलता था ? क्योंकि उस समय ध्यान करने की तुम्हारी स्थिति ही नहीं थी। ध्यान करने की स्थिति ही नहीं थी। तुम ध्यान कर ही नही सकते थे, लेकिन आवश्यकता क्या है ? गुरूकार्य करने से गुरूकार्य शरीर; तुम जो कुछ कर सकते थे, वो शरीर से कर सकते थे । मन से, चित्त से कुछ भी नहीं कर सकते थे। इसलिए मैं बोलता था गुरूकार्य करो, गुरूकार्य करो, गुरूकार्य करो। और गुरूकार्य करने से एक तो आप आपके समस्याओं से आपका चित्त कार्य के उपर जाता था और मैं गुरु का कार्य कर रहा हूँ, ये भाव के कारण आपका धीरे-धीरे, धीरे-धीरे गुरूशक्तियों के साथ अटैचमेंट होने लग गया, जुड़ाव होने लग गया, आपका चित्त उधर जाने लग गया, इसलिए मैं कहता था गुरूकार्य करो। *लेकिन अब मैंने बदल दिया है। अरे! अब बड़े हो गए ना, दस साल हो गए गुरूकार्य करते-करते। अब मैं बोलता हूँ गुरूकार्य अब वही होगा जो 'मैं' विरहित होगा। इसीलिए पहले आधा घण्टा ध्यान करो, तीस मीनिट ध्यान करो। ध्यान करने के बाद में, नियमित ध्यान आवश्यक है। गुरूकार्य करने के पहले नियमित ध्यान करो। अब बोलता हूँ गुरूकार्य के साथ पहले ध्यान करो, जबकि ये पहले नहीं बोलता था।* क्यों नहीं बोलता था ? तब आपका चित्त ध्यान करने के लायक ही नहीं था। *लेकिन अब ध्यान रखो, जितने भी लोग गुरूकार्य कर रहे हैं, सब लोगों ने एक तीस मीनिट नियमित ध्यान करना आवश्यक ही है।* क्यों आवश्यक है ? गुरूकार्य का अर्थ है - एक पवित्र आत्मा ने एक पवित्र आत्मा के लिए किया गया कार्य। तो पवित्र आत्मा के लिए किया गया कार्य के लिए पहले आप तो पवित्र आत्मा बनो। और पवित्र आत्मा होने के लिए आवश्यक है कि आप नियमित ध्यान करो।
*देखिए, ध्यान करोगे तो ही आपके हाथ से गुरूकार्य हो सकेगा, नहीं तो नहीं। अरे, आपका तो छोड़ो; मेरे हाथ से भी नहीं हो सकता। रोज खुद भी, मैं इतनाऽ कार्यक्रम में व्यस्त रहता हूँ, उसके बावजूद भी मैं मेरा ध्यान कभी भी नहीं छोड़ता। चाहे हाॅटेल में रहूँ , कहीं पे भी रहूँ , प्रवास करूं, कहीं भी रहूँ दुनिया के कोने में, नियमित ध्यान करता ही हूँ और ध्यान करके फिर कार्य करता हूँ। क्योंकि पहले संतुलित होने की, पहले बॅलन्स होने की आवश्यकता है। बॅलन्स होकरके फिर कार्य करो।*
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*मधुचैतन्य | मई - जून, 2019* पेज नंबर 18,19
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