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🌺आज 19:8:1998 का पत्र🌺
मीला
आज पुराना एक पत्र जो हिमालय यात्रा मे मैने गुरूमॉ को लिखा था वह
आज पुराने बैग मे मीला हो सकता है साधको कुछ नयी जानकारी मीले व
उस समय भी हम दोनो के बीच कीस
स्तर पर बात होती थी यह पता चलता
है ।
प्राथेना का हमारे “मस्तीक” क्या संमन्ध है यह पता चलता है ।और
परमात्मा अनुभुती आप स्वयम ले सकते है ।
आपका अपना
बाबा स्वामी १७/१०/१९
Wednesday
19-8-1998
🌸 प्रार्थना 🌸
ऐसा कहा जाता है कि प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है । हृदय से की गई प्रार्थना सदैव पूर्ण होती है, अब इस कहावत को क्या आधार है....
मनुष्य साधारणतहा प्रायः खुद के आसपास ही घूमते रहता है, उसे खुद की ही समस्या, दुःख दिखते रहते हैं । इसी कारण जैसे-जैसे वह उन समस्याओं पर लक्ष्य केंद्रित करता है, तब वह समस्याएं बढ़ती है। अनजाने में वह उन समस्याओं को खाद ही देता रहता है (बढ़ाता है) । तथा प्रार्थना विचार शुन्य स्थिति में होनी चाहिए, मतलब उसमें चिंता, भय, लालच, अपना स्वार्थ नहीं होना चाहिए । मन में कोई भी विचार ना रहे और प्रार्थना प्रायः सद् बुद्धि (सद् सद् विवेक बुद्धि) के लिए होनी चाहिए । क्योंकि अगर सद्-बुद्धि रहेगी तो मनुष्य हर परिस्थिति में से कुछ न कुछ मार्ग निकालेगा ही । और सद्-बुद्धि के लिए जब मनुष्य प्रार्थना करता है तब उसके चित् से निकलने वाली तरंगे (वाइब्रेशन, वेव्हज) उसके मस्तिष्क तक जाती है । (प्रत्यक्ष ऐसा करके देखें) मैंने ऐसा करके अनुभव लिया है। और जब तरंगे (वेव्हज) मस्तिष्क तक पहुंचती है तब वह खुब गतिशील होती है । और वे (वेव्हज) जब अति-गतिशील होती है, तब वे किसी भी समस्या की स्थिति में से कुछ न कुछ उत्कृष्ट, अप्रतिम मार्ग दिखाती है । क्योंकि पूर्ण मानव शरीर में मस्तिष्क की सबसे महत्वपूर्ण भाग है । मस्तिष्क का नियंत्रण खो देने वाले व्यक्ति को दुनिया "पागल" कहती है । तात्पर्य सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करना याने अपना ही चैतन्य अपने ही मस्तिष्क तक पहुंचाना होता है ।
मुझे श्री गणेशा "यह-वह" वस्तु मिलने दो, ऐसी प्रार्थना करने से नाभि चक्र पकडता है । मतलब चित् जैसे जैसे नाभि पर जाता है, वैसे वैसे नाभि चक्र की गति एकदम कम हुई महसूस होती है । तात्पर्य खुद के लिए कुछ मांगना मतलब चैतन्य में अवरोध उत्पन्न करने जैसा है । जैसे-जैसे आप विश्व कल्याण हेतु प्रार्थना करते हो, वैसे वैसे आपका चैतन्य बढ़ने लगता है । क्योंकि ऐसे करने से आप में विश्वात्मक भाव जागृत होकर उस निराकार, निरामय ईश्वर से समरस होता है । संक्षेप में आपमें ही देवभाव, ईश्वर भाव जागृत होता है । मनुष्य में और पशुओं में (जानवरों) यही सबसे बड़ा फर्क है की मानव विश्व के लिए प्रार्थना कर सकता है और जब विश्व के लिए आप प्रार्थना करते हो तब जाने-अनजाने में आप यह कबुल (मान्य) करते हो कि आप उस निराकार परमेश्वर के एक अंग(अंश) हो, और आप ऐसे जब मानते हो तब उस निरंकारी परमेश्वर की शक्ति आप में से बहने लगती हैं और एक बार वह बहने लग गई कि सारे कार्य वही करती है । इसलिए हम खुद प्रार्थना करते हैं, सिर्फ ईश्वर को सद्बुद्धि मांगे जिस वजह से अपने आप मस्तिष्क तक वाइब्रेशन (चैतन्य) मिलेंगे और उचित समय पर उचित कार्य करने की बुद्धि होगी । और उचित समय उचित कार्य करने से हमें अपने जीवन में सफलता मिलती है ।
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