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••◆ आज आश्रम से लौटते समय आश्रम-गेट (द्वार) से बाहर तथा आगे रास्ते के अन्य स्थानों पर देखा - सफाई हेतु वहाँ की सूखी घास में आग लगाकर सब जला डाला था।

••◆ वहाँ बबूल की झाड़ियाँ थीं। वे झाड़ियाँ भी आग की ऊँची लपटों से झुलस गई थीं। देखकर बुरा लगा। नाहक ही उन झाड़ियों को झुलसना पड़ा।

••◆ तभी मेरी नजर उन झाड़ियों में फूट रही नई कोपलों पर पड़ी। तोतों-सी हरी ये कोपलें कल विकसित शाखाएँ और पत्तियाँ बनेंगी। उस वनस्पति का जीवट स्वभाव अच्छा लगा।

••◆ बुरी तरह से झुलसने के बावजूद नई शाखाओं का उगना उसकी जड़ों के सशक्त होने का प्रमाण था। ये जड़ें जमीन से गहराई तक जुड़ी हुईं तथा विकसित थीं , तभी बाहरी आघातों का - झुलसने का उस पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा।

••◆ हम मानव अपने-आपको सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। किंतु आस्थारूपी जड़ें ईश्वर से या सद्गुरु से गहराई से नहीं जुड़ी होतीं।

••◆ इसीलिए बाहरी परिस्थितियों का परिणाम हम पर बहुत जल्दी होता है। छोटी-सी असफलता या शब्दबाणों से हम आहत होते हैं , विचलित हो जाते हैं।

••◆ यदि हमारा चित्त , हमारा समर्पण परम चैतन्य के प्रति हो , तो बाहरी परिस्थितियों का हम पर कोई परिणाम हो ही नहीं सकता।

आपकी ,
गुरुमाँ

पूज्या गुरुमाँ की डायरी से . . .
मधुचैतन्य २०१०
जनवरी, फरवरी, मार्च

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