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••◆ प्रत्येक सद्गुरु का सान्निध्य सद्गुरु के ही जीवनकाल में और जीवनकाल के बाद गुरुकार्य में ही छुपा हुआ रहता है।

••◆ आप तो खूब 'भाग्यशाली' हो , जबकि आपको गुरुसान्निध्य सालों से मिला है , बार-बार मिला है , लेकिन मुझे तो चंद दिनों का मिला था। उतने कुछ दिनों में ही वो सान्निध्य प्राप्त कर लिया और आज गुरु को कार्य के रूप में देखता हूँ। मैं गुरुकार्य कर रहा हूँ , गुरुकार्यरत हूँ यानी गुरु के साथ हूँ , गुरु के सान्निध्य में हूँ। कभी भी उनकी कमी महसूस नहीं हुई , कभी नहीं लगा कि वो उपस्थित नहीं हैं। सदैव गुरुकार्य के माध्यम से हम उनके साथ जुड़े रहते हैं।

••◆ हमारे प्रयत्न से नहीं जुड़ना होता है , भाव से जुड़ना होता है , आत्मा से जुड़ना होता है। जहाँ आपकी बुद्धि समाप्त होगी , वहाँ भाव प्रगट होगा। भाव का संबंध आत्मा के साथ है और बुद्धि का संबंध आपके शरीर के साथ है। जब तक बुद्धि है , तब तक शरीर भाव है। जहाँ बुद्धि समाप्त हुई , वहाँ से आत्मभाव शुरू होता है।

••◆ ठीक वैसे ही है , जैसे जहाँ धर्म समाप्त होता है , वहाँ परमात्मा की अनुभूति शुरु होती है।

••◆ धर्म सीढ़ी है और परमात्मा की अनुभूति मंजिल है।

••◆ ठीक उसी प्रकार से , जहाँ आपकी बुद्धि समाप्त होती है , बुद्धि गिर जाती है , बुद्धि नष्ट हो जाती है . . क्योंकि बुद्धि का क्षेत्र बाहर का है। आपको जानकारी देगा , इसकी जानकारी देगा , उसकी जानकारी देगा , उसका इन्फर्मेशन देगा . . और भाव का क्षेत्र भीतर का है।

••◆ दोनों विरोधाभास है। एक आउट साइड में है , एक इनसाइड में है। तो जब तक . . और केवल आउट साइड में जाकर के नहीं , आउट साइड में जाने के बाद में , कुछ दिन रुकना पड़ता है , कुछ दिन जो स्थिति है , उस स्थिति में ठहरना पड़ता है। एकदम अंतर्मुखी नहीं हो सकते।

••◆ जो सालों तक बहिर्मुखी रहा है , बुद्धिवादी रहा है , वो एकदम अंतर्मुखी नहीं होगा . . होना संभव ही नहीं है। क्योंकि एकदम दिशा ही मुड़ जाती है ना। एक दिशा बाहर की , एक दिशा अंदर की। लेकिन कुछ दिन स्थिर रहना पड़ता है।

••◆ यथास्थिति जहाँ हो वहाँ बने रहो और फिर धीरे-धीरे अपने चित्त को भीतर की ओर मोड़ो।

••◆ गुरुकार्य एक ऐसा कार्य है जिस कार्य से आप एक ठहराव प्राप्त करते हैं। ठहराव प्राप्त करते हैं यानी ? जो दौड़ बाहर की ओर चल रही है , बुद्धि की चल रही है , उस दौड़ को रोकते हैं , स्टॉप करते हैं और उसके बाद में , गुरुकार्य के अंदर लगाते हैं तो उससे आपको एक स्थिरता प्राप्त होती है , एक स्टॅबिलिटी (स्थिरता) प्राप्त होती है। बशर्ते , वो गुरुकार्य पूर्ण भाव के साथ किया गया हो।

••◆ देखिए , गुरुकार्य आप किसी के लिए मत करो। किसी को दिखाने के लिए मत करो। कुछ पाने के लिए मत करो। किसी अपेक्षा से मत करो। और उसके बाद में केवल आपके भीतर के परमात्मा को , आपके भीतर के आत्मा को प्रसन्न करने के लिए , खुश करने के लिए गुरुकार्य करो। कोई उद्देश नहीं है उसका। सिर्फ 'ये कार्य करना मुझे अच्छा लगता है , ये कार्य करने से मुझे प्रसन्नता लगती है।'

••◆ मुझे अच्छा लगता है मतलब मुझे नहीं , मुझे . . भीतर वाले मुझे को , भीतर वाले आत्मा को अच्छा लगता है , इसलिए कार्य कर रहे हैं। बाकी कोई भाव नहीं है । कोई नाम का भाव नहीं है . . अरे ! नाम तो शरीर का है ! अहंकार का दूसरा नाम 'नाम' है। तो उसके लिए मत करो , आप आपका . . आपको अच्छा लग रहा है इसलिए करो। तो आप देखोगे कि एक ठहराव , एक स्टेबिलिटी आपके जीवन में प्राप्त होगी और उसके बाद में आप देखोगे , धीरे-धीरे . . धीरे-धीरे . . गुरुकार्यरत होते-होते आपके ऊपर गुरुकृपा बरसने लगेगी , आपका आत्मा शुद्ध होगा , आपका आत्मा पवित्र होगा , आपका आत्मा सशक्त होगा , आपका आत्मा स्ट्राँग होगा , क्योंकि आप वो कार्य कर रहे हो जो कार्य करने से आपका आत्मा स्ट्रॉग होगा , आत्मा प्रसन्न होगा।

••◆ एक प्रकार से समझ लो ना , आत्मा रूपी पौधे को आप गुरुकार्य रूपी खाद डाल रहे हैं , पानी डाल रहे हैं , तो धीरे-धीरे वो पौधा बढ़ेगा ना। तो आपके भीतर भी , आपके अंदर भी एक आत्मा का बीज छुपा हुआ है। एकदम छोटा-सा है , अंकुरित है । उसको लुक आफ्टर (देखभाल) करने की आवश्यकता है , उसको पानी देने की आवश्यकता है , उसको खाद देने की आवश्यकता है।

••◆ लेकिन जब ऐसे पूर्ण भाव से आप कार्य करोगे , तो आप देखोगे आपका धीरे-धीरे . . धीरे-धीरे . . आत्मा स्ट्राँग हो जाएगा , आत्मा मजबूत हो जाएगा। और मजबूत हो जाने के बाद में , आपकी आध्यात्मिक प्रगति प्रारंभ होगी।

🌹परम पूज्य श्री शिवकृपानंद स्वामीजी🌹

चैतन्य महोत्सव २०१८ - समर्पण आश्रम , दांडी

मधुचैतन्य (पृष्ठ : १५)
जनवरी-फरवरी २०१९

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