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■ धीरे-धीरे हमारा समर्पण परिवार बढ़ता ही जा रहा है और यह बढ़ता ही जाएगा। जैसे सूर्य की किरण प्रिज़्म से गुजरकर सात रंगों में बँट जाती है। ये सातों रंग एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं , पर ये सात रंग ही मिलकर एक सफेद रंग बनाते हैं।

■ उसी तरह हम भी सात अलग-अलग रंगों के हैं , सात नहीं , शायद सात सौ रंगों के हों। लेकिन मिलकर तो एक ही समर्पण धारा में मिल जाते हैं। भले ही हम अलग-अलग जगह , विचारधाराओं या धर्म से संबंध रखते हों , फिर भी हम सब मिलकर उस एक ही परम पिता परमेश्वर की शरण में हैं।

■ इस बढ़ते हुए परिवार में हमारा एक अच्छा तालमेल रहे , हम एक दूसरे को एडजस्ट करते चलें और हमारे बीच कहीं कोई गलतफहमी न पनपे , ऐसी मेरी बहुत इच्छा है। क्योंकि आपस में जितना अच्छा तालमेल रहता है , उतना ही कार्य आगे बढ़ता है।

■ जब हमारे अंदर कभी कोई ऐसी भावना आती है कि मेरी बात को नहीं माना जा रहा है , तो उसे निकाल दीजिए क्योंकि बात तो किसी की भी नहीं मानी जा रही है। बात तो सिर्फ स्वामीजी की मानी जाती है। वे जो कहते हैं , आगे-पीछे का सब सोचकर ही कहते हैं।

■ कभी कभी हमें लगता है कि हम स्वामीजी के पीछे से कोई निर्णय ले रहे हैं। तो वास्तविकता यह है कि अपना यह एक्सचेंज है और यह उस मुख्य एक्सचेंज से जुड़ा हुआ है। तो हम वही निर्णय लेंगे जो उन्हें लेना है।

■ इसलिए अपने इस 'मैं' को निकालना है। जब हमारा 'मैं' आया , वही हमारा समर्पण समाप्त हो गया। क्योंकि जब हम समर्पित होते हैं तो मैं 'मैं' ही नहीं हूँ। और जब मैं 'मैं' नहीं हूँ फिर 'मेरी बात' भी कुछ भी नहीं है।

🌹परम वंदनीय गुरुमाँ🌹
समर्पण महोत्सव - मुलुंड , मुंबई
- १३ अक्टूबर २००२

मधुचैतन्य (पृष्ठ : ३१,३२)
जुलाई, अगस्त, सितंबर - २००२

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