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सभी परमात्माओं को मेरा नमस्कार . . .
••● अपने आप को जानना ही समर्पण ध्यान है। यही पूर्ण समाधान है। जो प्राप्त होने पर समाधि लग जाती है। *अब मैं महसूस कर रहा हूँ कि अब मैं आपके अत्यंत करीब हूँ। अत्यंत पास हूँ। आपके ही भीतर हूँ। अब तुम्हारी हर साँस मैं महसूस कर रहा हूँ। तुम्हारे भीतर बाहर के वातावरण से उठने वाला प्रत्येक विचार देख पा रहा हूँ।* और उस विचार का 'मैं' के अहंकार से होने वाला प्रभाव भी अनुभव कर रहा हूँ। *माँ इतनी करीब अभी पहुँची नहीं थी। अपने बच्चों के करीब माँ को पहुँचने का समय अब मिला है। अब बाहरी भीड़ नहीं है , अब मैं और मेरा बच्चा ही है।*
••● बच्चे तू किसे खोज रहा है ? किसके लिए भटक रहा है ? किसके लिए योजनाएँ बना रहा है ? किसे पाने की लालसा कर रहा है ? क्या पाने की इच्छा कर रहा है ? क्या पाना चाहता है ? क्या खरीदना चाहता है ? क्यों खरीदना चाहता है ? जिसके लिए खरीदना चाहता है। वह उसमें नहीं है। यह बात वह खरीद कर ही तू जान पाएगा कि वह खरीद कर भी वह नहीं मिला जो तु पाना चाहता था।
••● फिर भी तू अनुभव से नहीं सीखेगा। अब तू अपने पाने का दूसरा लक्ष्य निर्धारित करेगा। फिर प्रयत्न से उसे भी प्राप्त करेगा। फिर भी वह नहीं मिलेगा जो तू पाना चाहता था। और यह सिलसिला सालों तक चलता रहेगा। अब बहुत हो चुका अब थोड़ा शांत हो जा। थोड़ा शांत , अकेला बैठ और एकांत में सोच क्या खोज रहा था ? क्या ढूंढ रहा था ? जो साधनों में खोज रहा था। वह साधनों में कभी मिलेगा क्या ! तू जो खोज रहा है वह 'सजीव' है और साधन 'निर्जीव' है। वह सजीव , निर्जीव साधनों में कभी मिल सकता है क्या ? थोड़ा सोच , थोड़ा विचार कर , *साधन आराम दे सकते हैं 'सुख' नहीं। आराम शरीर को मिल सकता है 'आत्मा' को नहीं।*
••● *आत्मा को सुख चाहिए और वह सुख और शांति तेरे भीतर ही है। आ भीतर आ , आ मैं तेरे भीतर हूँ। तेरे भीतर की शांति को मैं अनुभव कर रहा हूँ। तेरे भीतर बड़ी शांति है , बड़ा सुख है। तेरे भीतर बड़ा आनंद है। तेरे भीतर मैं तो वह अनुभव कर ही रहा हूँ , तू भी आज अनुभव कर ले।*
••● *आ मेरे बच्चे भीतर आ जा , भीतर परम शांति है। आ मैं तेरे भीतर बैठा हूँ। और उस आत्मशांति को अनुभव कर रहा हूँ। और पगले तू है कि उस शांति को , उस सुख को बाहर खोज रहा है।*
••● अरे पगले तू दुःखी है तू सोच तुझे कोई दुःखी कर सकता है क्या ? नहीं कभी नहीं। तू दुःखी इसलिए है कि शरीर में रहते-रहते तूने शरीर को ही पकड़ लिया है। अरे मेरे बच्चे तू अलग है और शरीर अलग है। तू शरीर नहीं है। यह सब दुखों का कारण शरीर का 'मैं' का अहंकार ही है सारे दुःखों का कारण ही यह 'मैं' है।
••● *आ इस शरीर के "मैं" के आवरण को छोड़ और भीतर आ जा , भीतर कोई दुख नहीं है। कोई खोज नहीं है। कोई भटकाव नहीं है। संपूर्ण समाधान है। संपूर्ण शांति है। "संपूर्ण सुख है।"*
••● यह वह सुख है जो बाहर के साधनों देखकर खरीदा नहीं जा सकता। वह सुख तो केवल भीतर आने पर ही प्राप्त होता है। *आ मेरे बच्चे भीतर आ जा। अब तू बाहर रहकर थक गया है। भीतर आ जा।*
••● *अरे सुन तो "एक क्षण शांत हो जा , स्थिर हो जा" अपनी आँखे बंद कर ले। अपना चित्त तालु भाग पर रख ले। और एक बार केवल गुरुमंत्र का उच्चारण कर ले। यह मंत्र तुझे मुझ तक पहुँचा देगा।*
••● आज यह मंत्र सिद्ध हो गया है। आज इस मंत्र को परमात्मा की सामूहिकता मिल गई है। आज लाखों आत्माएँ एक मंत्र से लाभान्वित हो रही है। आ एक बार उच्चारण संपूर्ण भाव से कर , तू अनुभव करेगा कि तेरी भीतर की यात्रा शुरू हो गई है।
••● *मैं तेरे भीतर ही बैठा हूँ। यह मंत्र तुझे मुझ तक पहुँचाएगा बाहर तो तू है। मैं तो तेरे भीतर हूँ। अब मैं तुझे भी भीतर आने के लिए हृदय से पुकार रहा हूँ। आ मेरे बच्चे भीतर आ जा।*
••● अब भीतर आ कर उस परमशांति को अनुभव कर जिसकी तलाश तू जीवनभर कर रहा था। नाम , जाती , भाषा , धर्म , रंग रूप , "धन" यह सब बाहरी आवरण है। इन्हें निकालकर फेंक , नंगा हो जा। सत्य हो जा।
••● सत्य पर कोई आवरण नहीं रहता। झंझटें इस आवरणों से है। इन सब को लेकर तू कभी भी भीतर आ न सकेगा। जीवनभर इन्हें पकड़कर देख लिया अब इन्हें छोड़ कर देख। *सब छोड़कर आ जा। "मैं भीतर तेरा इंतजार कर रहा हूँ।" यह सब आवरण तेरे शरीर के हैं , तू शरीर नहीं है बस यह जान जा।*
••● *एक बार केवल एक बार भीतर आकर तो देख। तो समाधान को प्राप्त हो जाएगा। उस समाधान में कब समाधि लग गई तुझे तेरा ही पता नहीं चलेगा।* जो बाहर में नहीं मिला वह सब भीतर प्राप्त हो जाएगा। *अब तू भीतर आएगा ना ? मेरे आवाज़ तू सुनेगा ना ? आ मैं तेरे भीतर ही तेरा इंतजार कर रहा हूँ।*
तेरा सिर्फ तेरा
*बाबा स्वामी* (भीतर हूँ)
२७/१/२००८
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