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Showing posts from January, 2019

सद्गुरु पवित्र आत्मा का सागर

"प्रत्येक आत्मा को अपना संपूर्ण चक्र पार करके भोग भोगना ही होते हैं | लेकिन उस भोगने के दौरान जीवन में कोई सद्गुरु मिल जाएँ तो सद्गुरु कोई एक आत्मा नहीं होते हैं, सद्गुरु पवित्र आत्मा का सागर होते हैं, समुद्र होते हैं | उनकी संगत में मनुष्य के भोग कम होने की संभावना होती है | यानी मनुष्य को अपने भोग भोगना ही है, यह निश्चित है लेकिन जीवन में सद्गुरु मिले तो ही भोगों से मुक्ति संभव है |" ("हिमालय का समर्पण योग", भाग-५, पेज २४४)

આભામંડળ શું હોય છે?

પ્રશ્ન 24: આભામંડળ શું હોય છે? સ્વામીજી : આભામંડળ અનેક રંગોથી બનેલો એક શક્તિપૂંજ છે, જે આપના શરીરની ચારેય તરફ હોય છે. જેમ ઈંડામાં પક્ષીનું બચ્ચું હોય છે, બરાબર તે જ રીતે તેની અંદર આપ રહો છો. આપણો પડછાયો અંધારામાં નથી રહેતો, પરંતુ આભામંડળ અંધારામાં પણ જળવાઈ રહે છે...ક્યાં પ્રકારના આપ વિચાર કરો છો, તે જ પ્રકારનું તેનું નિર્માણ થાય છે... આ સ્થાયીરૂપનું નથી હોતું, વર્તમાન સ્થિતિ અનુસાર બદલાય છે... આભામંડળ દ્વારા વ્યક્તિને ઓળખી શકાય છે. ચૈતન્ય ધારા પાનાં નં.- 20.

ચક્ર શું છે?

પ્રશ્ન 25: ચક્ર શું છે? સ્વામીજી : મનુષ્યના શરીરમાં સાત ઉર્જાકેન્દ્ર હોય છે, જેને ચક્ર કહેવામાં આવે છે. આ ચક્ર શરીરની દૂષિત ઉર્જાને બહાર ફેંકી તાજી ઉર્જા ગ્રહણ કરતાં રહે છે. મનુષ્યના વિચારોના કારણે આ ચક્ર રૂંધાઇ જાય છે, પરિણામે દૂષિત ઉર્જા બહાર નથી ફેંકાતી અને શરીર અસ્વસ્થ થઈ જાય છે. આ ચક્ર જેટલા વિકસિત થશે, મનુષ્ય તેટલો સ્વસ્થ, સંતુલિત, પ્રસન્ન, સફળ તથા પ્રભાવશાળી થશે. ચૈતન્ય ધારા પાનાં નં.- 20.

प्रार्थना

"गुरुक्षेत्र में गुरु शक्तियों के समक्ष कभी इच्छा नही करनी चाहिए। प्रार्थना करो - गुरुदेव, अब जो भी जीवन मे हो, आपकी  ईच्छानुसार हो। मैं पामर क्या इच्छा कर सकता हु? आप दया के सागर हो, जो हो, आपकी इच्छानुसार  हो" HSY 2/ 275

आभार

आज नववषे की सुबह होने पर मेरा मन “आभार” से ही भर गया सवे प्रथम तो उन सभी साधक और साधीका ओ का ह्रदय पुवेक आभार जिनके मेहनत,और निस्वांथे भाव से किये गये त्याग और आत्मीयता से किये गये “गुरूकाये” से गत वषे इतने विश्वस्तर पर काये सपन्न हो सका। मेरे देवी देवता तो वही है।जिनके कृपा के बीना मुझसे इतने बडे स्तर पर काये संभव ही नही था। बाद मे मैने मेरे “स्थुल शरीर” का ह्रदय  से आभार माना जीसने इतने लाखो कैचेस सहन कर भी मेरा साथ न छोडा आज भी भी मेरे साधक इतने परीपक्व नही है।की स्थुल शरीर की उपस्थीती बीना काये हो सके सभी स्थानो पर विश्वभर मे जाना ही पडता है। आज भी इस स्थुल शरीर का एक जबरजस्त चुंबकीय आकेषेण सारे विश्व मे दिन प्रतीदिन बढ रहा है।इस लिये तो आज महसुस हुआ की इस “स्थुलशरीर” की भुमीका इस पवीत्र गुरूकाये मे बहुत ही बडी है।इस लिये ह्रदय से उसका आभार है। आज एक सुक्ष्म व्यवस्था के तहत ही मेरे इस स्थुल शरीर से नववषे दक्षीण भारत से प्रांरभ हो रहा है।और उस सुबह को29/30/31/ की रातो का आधार है।और आज की रात को गीनकर चारराते चैनई तामीलनाडु मे बीताना भवीष्य का संकेत है. की

Gratitude

Today on the morning of the New Year my mind got filled with ‘gratitude’. First of all, my heartfelt thanks to all the sadhaks and sadhikas whose hard work and selflessness, whose sacrifice and kindredness with which they performed ‘Guru-karya' in the past year has helped in accomplishing so much work at the global level. They themselves are my gods and goddesses, without whose grace the work on such a vast scale was impossible for me to achieve. After that, I expressed my gratitude to my ‘physical body’, which still supported me despite having to bear lakhs of catches, as even today my sadhaks are not so mature, that the work can be performed without the presence of the physical body. I have to travel to all the places around the world. Even today an enormous magnetic attraction of this physical body is growing all over the world day by day. That’s why, I felt today that the role of this ‘physical body’ is very great in this holy work. Therefore, my heartfelt gratitude to it.

आज का वषे का पहला दिन चैनई के साधको के साथ

आज का वषे का पहला दिन चैनई के साधको के साथ बहुत अच्छा बीता है। उनकी अच्छी रिसीव्हीग के कारण सभी को आंनद आया। आज स्वागत मे जो मंन्दीर मे बजाये जाने वाले वाद्य थे उनका का आवाज तो बहुत था पर बडे ही भाव से बजा रहे थे ।वह जो रामु राजा बना वाली कहानी जैसा वाद्य वृद से स्वागत हुआ और दो समुह के साथ जो जुगलबंन्दी का कायेक्रम हुआ वह तो अविस्मरणीय हुआ है। इतने अधीक चैतन्य के स्तर पर हुआ की अभी भी मै शरीर के स्तर पर नही आ पा रहा हु। पता नही कब आऊगॉ।अच्छे इस स्वागत कायेक्रम के लिये सभी आयोजीत करने वाले साधको को खुब खुब आशि्वाद              आपका अपना  बाबा स्वामी चैनई समपेंण सेन्टर चैनई१/१/१९

समर्पण ध्यान

       समर्पण ध्यान   की   पहली   पादान   है  - आप  अपने -  आपको   एक   "पवित्र आत्मा "  मानो । आप   मानोगे   तो   आप   एक   पवित्र   आत्मा   वास्तव   में   बन   जाओगे   औऱ   परमात्मा   को   अपने   भीतर   ही   पाओगे । मेरे   "माध्यम"  से   परमात्मा   नया  पंथ  या    नया   धर्म   स्थापित   करना   नही   चाहता । परमात्मा   तो   चाहता   है ,  आप   उससे   "आत्मा"  बनकर   संपर्क   स्थापित   करो ।  आप   अपने -आपको   जितना   "आत्मा"  मानोगे   उतना   ही   आप   "परमात्मा"  कें  करीब   रहोगे ।                        पूज्य श्री गुरुदेव                      [सानिध्य / माध्यम]                         23/02/2012

आत्मा का आनंद

जीवन  में  आई  बुरी  परिस्थितियों  का  सामना  करने  के  लिए  मुझे  आत्मबल  मिला  और  भीतर  एक  ही  आवाज  होती  थी -- परमात्मा  स्थाई  है । ये  बुरी  परिस्थितियाँ , ये  बुरे  व्यक्ति  अस्थाई  है , आज़  है  कल  नही  होंगे  तो  क्यों  अस्थाई  बातों  पर  ध्यान  देकर  अपना  वर्तमान  समय  खराब  करे ? आत्मा  के  सानिध्य  में  वर्तमान  समय  का  महत्व  जाना  क्योंकि  आत्मा  का  आनंद  भी  वर्तमान  में  रहकर  ही  प्राप्त  हो  सकता  है ।        ही .का .स .योग .        भाग ५ पृष्ठ १६३

विश्वचक्र

* विश्वचक्र * *07/01/ 2019* *सोमवार*           *मेरी  "मन" की  बात  है  जो  आज़  लिखकर  बता  रहा  हूँ । इससे  मुझे  "आत्मशांति" मिलेगी  की  मैंने  मेरा  कर्तव्य  पूर्ण  किया  औऱ  यहि  कारण  है   आजकल  मैं  मेरे  पास  स्टेज  पर  बुलाकर  किसीका  सम्मान  नही  करता । क्योंकि  मेरे  करीब  तो  लाखों  लोग  आना  चाहते  है  पर  आ  नाही  पाते  औऱ  जो  करीब  आते  है  उन  पर  उन  लाखों  लोगों  का  "नकारात्मक चित्त" आता  है  जो  करीब  चाहकर  भी  भी  नही  आ  सके ।यहि  कारण  है  की  मेरे  करीब  रहनेवाले  भी  जब  तक  "कर्ता" का  भाव  छोड़कर  रहते  है  उतने  समय  ही  रह  पाते  है  औऱ  दूसरा  जो  एक  बार  दूर  हो  गया  वह  वापस  कभी  नही  आता । इससे  अच्छा  है  "दूर ही रहो" औऱ  चैतन्य  का  आनंद  लो । मैं  आपके  शरीर  से  भले  ही  दूर  हूँ  लेकिन  आप  आँखे  बंद  करके  देखो  तो  आप  मुझे  अपने  "ह्र्दय" में  ही  अनुभव  करोगे । क्योंकि  अब  मैं  वही  हूँ । आप  सभी  को  खूब -खूब  आशीर्वाद ।*                               *आपका*         

आत्मा तो परमात्मा का ही छोटा स्वरुप

"आत्मा तो परमात्मा का ही छोटा स्वरुप है | वह हमारे पिछले जन्मों का और आगे का सब जानती है इसीलिए, जो योग्य हो, वही निर्णय वह लेती है | वे निर्णय वर्तमान समय में योग्य न भी लगते हों लेकिन भविष्य में वही निर्णय योग्य जान पड़ता हैं | यानी आत्मा भविष्य को ध्यान में रखकर निर्णय लेती है, जबकि मष्तिष्क भविष्य के बारे में केवल सोच सकता है लेकिन भविष्य क्या है, यह वह कभी नहीं जानता है | अगर हमारा वर्तमान, आत्मा के निर्देशानुसार हो तो भविष्य उज्जवल ही होगा |" ("हिमालय का समर्पण योग", भाग-५, पेज ३३८)

सदगुरु

समुद्र  कभी  पानी  की  बूंद  तक  पहुँचने  का  प्रयास  न  करता  है , न  कर  पाएगा । अंत  में  बूंद  को  ही  समुद्र  तक पहुँचना  होगा । समुद्र  अपनी  सीमा  में  शांत  बैठा  होता  है । ठीक  इसी  प्रकार  सदगुरु  अपने  स्थान  पर  स्थित  होता  है , हमे  ही  उस  तक  पहुँचना  होता  है आध्यात्मिक सत्य 
में आपको १००% समर्पित हु | लेकिन आप मुझे कितने समर्पित है | यह प्रश्न आप एकान्त में अपनी " आत्मा " को पूछो क्योंकि अगर आप भी मुझे १००% समर्पित हो तो आपकी भी स्थिति मेरे ही समान होना चाहिए | क्यों नहीं है ? क्योंकि आपने अपना " में" का अहंकार अभी भी समर्पित नहीं किया है | मुझे सब दिखता है | लेकिन तुम्हारा अहंकार तुम्हारी अपनी निजी संपति है | वह में आप से छीन कर कैसे ले सकता हु | अब वह आप ही की संपति है | आप जब समर्पित करेगे तब तक मुझे उसकी राह देखने के अलावा में कर ही क्या सकता हु | जब तक आपको ही उसका मोह है | और आप ही भीतर उसे समर्पित करना नहीं चाहते में आप से आपकी संपति जबरजस्ती कैसे ले सकता हु ? अब मुझे लगा वह मैंने बता दिया आपकी आप जानो ......  आपका बाबा स्वामी २८-०५-२०१३

फूलों की खुशबू से

प्रत्तेक  आत्मा  मोक्ष  की  कामना  लेकर  इस  धरती  पर  जन्म  लेती  है  किंतु  संसार  का  मायाजाल  उसे  भ्रमित  कर  देता  है। जग  की  भूलभूलैया  में  भटकते - भटकते  अचानक उसे  अपना  जीवनध्येय  अर्थात  मोक्ष  की  याद  आती  है। तब  उसी क्षण  से  आत्मा  गुरु  से  मिलने  को  आतुर  हो  उठती  है। जब  तक  उसे  गुरु  नही  मिलता  आत्मा  की  स्थिति  जल - बिन - मछली - सी  हो  जाती  है। तब  जीवन  में  गुरु  का  प्रवेश  होता  है। गुरु  आत्मज्ञानी  होता  है। उसकी कृपा  में  साधक  को  भी  आत्मज्ञान  प्राप्त  होता  है। सदगुरु  साधक  को  पारिवारिक  जिम्मेदारियाँ  निभाते  हुए  ध्यान  करने  की  प्रेरणा  देता  है। [ परमवंदनिय गुरुमाँ ]

धर्मशाला

जब  तक  आप  " धर्मशाला " में  है , तब  तक  मैं  "घर " नही  जा  सकता । अब  निर्णय  आपको  करने  का  है । कब  तक  देहरूपि  धर्मशाला  में  रहना  है , और  कब  घर  जाना  है ! यह  निर्णय  मैं  पूर्णतः  आपके  ऊपर  सोँपता  हूँ  और  आपके  निर्णय  से  मैं  बँधा  हुआ  हूँ । नमस्कार । परमपूज्य स्वामीजी २०--५-- २००८

स्वामीजी , साधकोँ के बीच आत्मीयता बनानी होती है या अपने -आप घटित हो जानी चाहिए ?...

प्रश्न :  स्वामीजी , साधकोँ  के  बीच  आत्मीयता   बनानी   होती   है  या  अपने -आप  घटित  हो  जानी  चाहिए ?... स्वामीजी :  घटित  हो  जानी  चाहिए । जहाँ  साधक   का   अस्तित्व   अलग   है , तब   आत्मीयता  बनाने  का  प्रश्न  है । अगर  साधक  का   अस्तित्व  ही  समाप्त  हो  गया  तो  आत्मीयता  खुद -b-खुद  आ  जाएगी ।मेरे  सब  साधकोँ  के  साथ  अच्छे  रिलेशन्स  है , तो  आपके  क्यूं  नही  होंगे ? आपके  भी  होने  चाहिए । जो  मेरी  स्थिति  है , वो  आपको  प्राप्त  होना  चाहिए  ना ! अगर  आपको  प्राप्त  नही  हो  रही  है , इसका  मतलब  आपने  अपना  अस्तित्व  मेरे  से  कुछ  अलग  रखा  हुआ  है । नही  तो  मेरे  सब  के  साथ  अच्छे  रिलेशन्स  है । तो  आपके  भी  रिलेशन्स  सबके  साथ  एक  जैसे  होने  चाहिए ।.. ************** परमपूज्य गुरुदेव - युवा शिविर - २००८- **************

जिवंन्त गुरू

जिवंन्त गुरू कल शाम धामपर कुछ साधक श्री गणेश दशेन की तैयारीया कर रहे थे तो उन्हे मीला वे बोले पहले तो आप सामुहीकता मे ध्यान करने पर जोर देते थे लेकीन आजकल अकेले ध्यान करने को कहते हो ऐसा क्यो? मैने कहा जिवंन्त गुरू परीवतेन शील होता है स्थीती के अनुसार बदलता है। उस समय तुम लोग इतनी समस्या से घीरे हुये थे की अकेले ध्यान करना तुम्हारे लीये संभव नही था आज १८ साल बाद स्थीती अलग है अब तुम्हारे जीवन मे करने के लीये पाने के लीये कुछ नही रह गया तो आज तुम्हे ध्यान करने के लीये सामुहीकता की आवश्यकता नही है। कहते है पानी पीयो छान कर और गुरु करो जानकर और जाना तो केवल आत्मसाक्षात्कार से जाना जा सकता है। आध्यामीक क्षैत्र मे बीना अनुभुती के आना उचीत प्रतीत नही होता  ।                                                         बाबा स्वामी                 २८/८/२०१७

मन की एकाग्रता ,मूर्ति और सामूहिकता

हमे  अपनी  अपनी  आध्यात्मिक  प्रगती  के  लिए  मन  की  एकाग्रता  करनी  होगी  और  मन  की  एकाग्रता  करने  का  माध्यम  मूर्ति  है । मूर्ति  तो  वास्तव  में  एक  पत्थर  है , पर  उस  पत्थर  में  आकार  दिया  गया  है । वह  आकार  हमारे  मन  का  भाव  निर्माण  करता  है । मूर्ति  तो  अपनी  एकाग्रता  के  लिए  है । हमारा  भाव  ही  उसमें  देवत्व  का  निर्माण  करता  है . . . वह  भाव  ही  मनुष्य  को  झुका  सकता  है  और  मनुष्य  जितना  झुकता  है , उतना  ही  उसका  स्वयं  का  अस्तित्व  समाप्त  हो  जाता  है । और  मनुष्य  का  अस्तित्व  जितना  समाप्त  होता  है , उतना  ही  वह  सामूहिकता  के  साथ  जुड़  जाता  है । यह  सामूहिकता  की  शक्ति  ही  परमात्मा  की  शक्ति  है ।            ही .का .स .योग                  भाग  २

सद्गुरु

जो शरीर सद्गुरु को ही नहीं जान पाया वह सद्गुरु से प्राप्त 'अनुभूति 'को क्या समझेगा! सद्गुरु तो स्थूल रुप में जीवंत है,जब उसे ही , नहीं जान पाए तो उसके द्वारा की गई 'अनुभूति 'को क्या  समझ पाएंगे ! यही एक कारण है कि 'सद्गुरु ' को पाकर  भी साधक सद्गुरु को 'खो' देते हैं ,अनुभूति  को पाकर भी साधक अनुभुति को 'खो' देते हैं l सद्गुरु वाणी

साधना

सतत साधना करनी होगी । केवल  ' साधक ' या ' साधिका ' कहकर ये साधना पूर्ण नहीं होती । आपको अपने-आपको साधना होगा । अगर आप अपने-आपको साधक समझते हैं तो आप आज आत्मपरीक्षण करो कि आप कितने समय चौबीस घंटे में से वर्तमान में रहते हैं ? कितने समय भूतकाल में रहते हैं ? कितने समय भविष्यकाल में रहते हैं ? हो सकता  हैं एखादा भूतकाल का विचार आ जाए , हो सकता हैं भविष्यकाल का विचार आ जाए , लेकिन ये विचार कार्यकाल , ये विचार की स्थिति क्षणिक होनी चाहिए । क्षणिक का मेरा आशय - जैसे हम बरसात में देखते हैं कि नहीं , एखादा पानी गिरता है पानी का बबूला उठता है ; एक क्षण उठता है और दूसरे क्षण विसर्जित हो जाता है । ठीक इसी प्रकार से भूतकाल के विचारोंका बबूला , भविष्यकाल के विचार का बबूला उठता और टूट गया । वो जितने क्षण , जितने देर , जितने समय आपके मन में रहेगा । उतने समय वो आपको वर्तमान से दूर रखेगा । और वर्तमानकाल से दूर रखेगा तो परमात्मा से भी दूर रखेगा क्योकी परमात्मा वर्तमानकाल में हैं ।             प.पु.शिवकृपान॔द स्वामी गुरुपूर्णिमा 2018

आत्मा और देह

दोनों  तुम्ही  हो ! एक  तुम  अर्थात  आत्मा  हो . . . तुम  ईश्वर  का  अंश  हो . . . प्रत्तेक  आत्मा  ईश्वर  का  अंश  होती  है । और  दूसरी  तुम  अर्थात  तुम्हारी  देह । यह  देह  आत्मा  का  साधन  होती  है । आत्मा  से  परमात्मा  तक  की  यात्रा  देह  रूपी  साधन  के  बिना संभव  नही । देह  अदभुत  साधन  है ।इसके  पास  क्षमताओ  का  विशाल  खजाना  है । देहके  पास  असीमित  क्षमताए  है । इन  क्षमताओ  का  कितना  उपयोग  होता  है . . . क्या  उपयोग  होता  है ? किसलिए  उपयोग  होता  है ? किस  तरह  उपयोग  होता  है ? ये  नियंत्रण  या  तो  आत्मा  करती  है  या  मस्तिक । जब  नियंत्रण  आत्मा  के  हातों  में  होता  है  तब  आत्मा  परमात्मा -सी  होती  है । यदि  नियंत्रण  मस्तिक  के  हातों  में  हो  तो  देह  की  भावनाओं  का  प्रभाव  विचारों  का  प्रभाव  देह  के  कार्यों  पर  पड़ता  है ।देह  में  सकारात्मक  और  नकारात्मक  दोनों  प्रकार  की  भावनाएं  होती  है ।  भावनाएं  विचारों  को  जन्म  देती  है । विचार  मस्तिक  को  प्रभावित  करते  है  और  विचारों  से  प्रभावित  मस्तिक  देह  से  कार्य  करवाता  है । आत्मा  मस्ति

॥स्वामीजी के सूक्ष्म शरीर का प्रभाव॥

किसी  भी  स्थान  पर  जब  रुकता  था  तो  रात  को  सोने  के  बाद  सूक्ष्म  शरीर  का  आकार  बहुत  बढ़  जाता  था  और  वह  आकार  ही  वातावरण  से  शरीर  को  सुरक्षित  रखता  था। और  उस  बढे  हुए  सूक्ष्म  आकार  से  उस  स्थान  की  ऊर्जा  और  उस  स्थान  के  चैतन्य  के  बारे  में  जानकारी  मिल  जाती  थी। एक  रात  भी  शरीर  कहीँ  रहता  था  तो  उस  स्थान  पर  प्रभाव  छोड़  जाता  था। वह  प्रभाव  स्थाई  रूप  से  होता  ही  था। और  रात  में  शरीर  विकसित  होकर  आवश्यक  सुरक्षा  प्रदान  करता  था। [ ही.का.स.योग- भाग ५ ]            पृष्ठ- ३१६

जीवन की मृत्यु निश्चित है

जीवन की मृत्यु निश्चित है । सृजन का विसर्जन निश्चित है ॥ तो हे मानव !मत डर जग में । धीरज रख जी ले इस जग में ।। अर्थात :-- जन्म -मृत्यु  तो  हमारे  हाथ  मे  नही  है ।हाँ , जीवन  हमारे  हातो  में  है , तो  इस  जीवन  मे  नकारात्मक  विचार  तथा  भय  जैसी  भावनाओं  को  स्थान  क्यों  दे ? क्यों  न  हम  ईश्वर  के  प्रति  पूर्ण  आस्थावान  बने  तथा  गुरु  के  प्रति  पूर्ण  समर्पित  रहे । "मेरा  बुरा  कूछ  हो  ही  नही  सकता " --ऐसा  पूर्ण  विश्वास  रखे । ✍. . . . . . . . . आपकी - गुरुमाँ
शरीर से मैं आपके साथ होता हूं,  दिखता भी हूंँ पर सदैव चित से तो हिमालय की उस गुफा में ही हूँ जहाँ मेरा सूक्ष्म  शरीर विघमान है| इस लिए यहाँ के बाहरी वातावरण का, परिस्थिति यों का कोई प़भाव मेरे ऊपर नही पड़ता है| यानी इस जगत में हूँ, पर हूँ नही आपका बाबा स्वामी

आत्मसाधना

आप आत्मसाधना करते हैं तो आपकी मानसिक सहनशीलता भी खूब बढ़ जाती है। कोई लोग आके बोलेंगे तो भी शांत होके आप सून लेते हो। उन बातों का आपके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आज के जगत में इसकी बहुत आवश्यकता है, बहुत आवश्यकता है। सहनशीलता कम हो रही है, सहनशीलता इसलिए कम हो रही है क्योंकि शरीरभाव बढ़ रहा है, आत्मभाव कम हो रहा है। आत्मा का गुण सहनशीलता है। आज कोई दो बातें सुनने के लिए भी तैयार नहीं है। - परम पूज्य गुरूदेव, महाशिवरात्री, 2016

आत्मसंयम

दुःख  यह  होता  है --- गुरुदेव  की  कृपा  में  साधकों  को  आसानी  से आत्मसाक्षातकार  मिला  है  लेकिन  उनको  उसकी  कदर  ही  नही  है । केवल  आत्मसाक्षातकार  पाने  से  कभी  आध्यात्मिक  प्रगति  नही  होती । उस  ऊर्जा  को  आत्मसंयम  मे  परिवर्तित  करना  होता  है । आत्मसंयम  प्रथम  पादान  है । आत्मसंयम  से  ही  शरीर  पर  अनुशासन  लाया  जा  सकता  है । क्योंकि  जिसका  अपने  शरीर  पर  नियंत्रण  नही  है , वह  अपने  विचारों  पर  नियंत्रण  क्या  खाक  करेगा ! ॥ सदगुरु के र्हदय से ॥

गुरु-सान्निध्य

मनुष्य जीवन में सबकुछ अपने प्रयत्न से प्राप्त कर सकता है, बस एक गुरु-सान्निध्य ही है जो प्रयत्न से प्राप्त नहीं होता है । गुरु-सान्निध्य केवल गुरुकृपा में ही प्राप्त होता है और गुरुकृपा कभी प्रयत्नों से नहीं होती है । हिमालय का समर्पण योग - १ पृष्ठ - १७०

ध्यान में प्रगति

" ध्यान में प्रगति शाश्वत और धीमी होनी चाहिए। प्रथम, विचारों को नियंत्रित करो, मन को नियंत्रित करो, वासना को नियंत्रित करो। मन को शुद्ध करो, मन को सकारात्मक करो। प्रथम, मन को वैररहित करना होगा, बाद में वह गुस्सारहित होगा। एकाध परिस्थिति में, एकाध क्षण में मनुष्य को क्षणिक गुस्सा आ सकता है लेकिन उसका बुरा प्रभाव मनुष्य के ऊपर तीन दिनों तक रहता ही है।  और गुस्से से भी खराब स्थिति है-वैरभाव। यह सतत गुस्सा करने से निर्मित हुआ राक्षस है।   वैरभाव का लाभ उठाकर मनुष्य में बुरी आत्माएँ प्रवेश करती हैं और वैरभाव में मनुष्य का अपने कर्मो पर नियंत्रण  नहीं रहता है। वैरभाव रखने से हम दूसरों के हाथों की कठपुतली हो जाते हैं। वैरभाव से हम हमारे ऊपर का नियंत्रण खो देते हैं और ऐसे समय बुरी आत्माएँ हमारे ऊपर नियंत्रण कर लेती हैं और हमारे हाथों बुरे, और बुरे कर्म कराती हैं।  इसलिये मनुष्य को इससे बचना चाहिए। किसी व्यक्तिविशेष पर सतत गुस्सा करने से ही उसके प्रति वैरभाव का निर्माण हो जाता है, इसलिए हमारा हमारे ऊपर संपूर्ण ध्यान होना चाहिए।" हि.स.योग.४, पेज. ३२०.

मोक्ष का मार्ग

" मोक्ष का मार्ग सदगुरु सदैव केवल 'बताते' हैं, वे मोक्ष 'दे' नहीं सकते हैं। आत्माको स्वयं अपने प्रयत्नों से मोक्ष की स्थिति पानी होती है।  गुरुदेव ने भोजन किया तो शिष्य का पेट भरेगा क्या? नहीं! क्योंकि भोजन करना एक क्रिया है, वह गुरुदेव ने की। और जो उनके हाथ ने उनके मुँह में  कौर डाला तो वह कौर गुरुदेव ने निगला, इसलिये गुरुदेव का पेट भर पाया।  बस यह निगलना ही महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक को स्वयं निगलना होगा। गुरुदेव निगलेंगे, गुरुदेव का पेट भरेगा; शिष्य निगलेंगा, शिष्य का पेट भरेगा। ऐसा ही मोक्ष की स्थिति का है। मोक्ष की स्थिति एक शून्य की स्थिति होती है जहाँ बाहर की प्रकृति और भीतर की प्रकृति  एक हो जाती है।यह शरीर बाहर बहने वाली चेतना का  माध्यम बन जाता है। 'अंदर ' और 'बाहर' एसा कुछ नहीं रह जाता है। लेकिन यह स्थिति तो स्वयं आत्मा को ही पानी पडती है और यह अपनी साधना से ही प्राप्त हो सकती है। गुरु अधिक से अधिक वह मार्ग बताऐँगे, मार्ग तक फहुँचाएँगे लेकिन मार्ग पर चलना तो आत्मा को ही पडेगा।  आगेका अपना मार्ग तो प्रत्येक आत्मा को स्वयं तय करना होता है।

आहार का ध्यान के साथ सीधा संबंध

पिछले १५दिनों में गुरुमाँ ने मुझ पर एक प्रयोग किया। मुझे सुबह नाश्ते में फल और ज्यूस , दोपहर में दाल , चावल , सब्जी , रोटी (ज्वार, गेहूँ, मक्का) हरा सलाद व रात में मूँग की खिचडी या चावल व मूँग की दाल- इस प्रकार भोजन करवाया , तो अनुभव हुआ - मेरा वजन कम हो गया , मुझे हल्का महसूस होने लगा और ध्यान की एक उच्च कक्षा में बड़ी आसानी से पहुँच गया। जब हम हल्का, सुपाच्य भोजन करते हैं , तो लिवर पर अधिक दबाव नहीं आता है। ध्यान का संबंध चित्त से है , चित्त का संबंध लिवर से है और लिवर का संबंध आपके आहार से है। यानि आहार का ध्यान के साथ सीधा संबंध है। हल्का आहार लेने पर मैंने अनुभव किया - पहले मेरी काफी चेतना-शक्ति गलत आहार को पचाने में ही खर्च हो जाती थी। उस चेतना-शक्ति की बचत हो गई और वही चेतना-शक्ति ध्यान में अच्छी स्थिति बनाने में परिवर्तित हो गई। और यही लाभ सभी साधक भी ले इसी शुद्ध इच्छा से यह अनुभव आपको बता रहा हूँ। आप भी तली हुई चिजों और मीठी वस्तुओं से परहेज करें। बीच में एक-आध दिन आपने खा भी ली , तो उसका असर नहीं पडता , रोज के आहार में नहीं होनी चाहिए। माँसाहार करना यानि मरा हुआ प्राण

ध्यान करने से तृप्ती का अनुभव

ध्यान करने से तृप्ती का अनुभव होता हैं। ध्यान नियमीत रुप से होने से नाभी चक्र विकसित होने लगता है।  हमे किसी चीज का अभाव नही होता। हमारी सभी आवश्यकताए पुरी होती है और धीरे धीरे एक ऐसी भी स्थिती प्राप्त हो जाती है कि  किसी चीज कि हमें जरूरत महसूस होने से पहले ही वह चीज हमें हशील हो जाती है। मधुचैतन्य अक्टू/नवं/दिसं/2004/17

પૂજ્ય ગુરુ માઁ

પૂજ્ય ગૂરૂદેવ  -  "  મને  તો  ક્યારેક - ક્યારેક  લાગતું   હતું  કે  પત્ની  જ  શક્તિસ્વરૂપા  છે . જે  હંમેશા  મને  કાર્ય  કરવા  માટે  શક્તિ  પ્રદાન  કરતી  રહે  છે  અને  તે  જ  કારણે  હું  હંમેશા   કાર્ય  કરી  શકું  છું  કારણ  ,  તે  મારી  ક્રિયાશક્તિ  હતી .  ફક્ત  ઈચ્છાશક્તિ થી  કાર્ય  થઇ શક્તું  ન  હતું . કાર્ય  નું  સંપન્ન  થવું  બન્ને  શક્તિઓના  સંયોગથી  જ  સંભવ  થતું  હતું . મારી  પત્ની  મારા  કાર્ય માં  સંપૂર્ણ  સલાહકાર  , આલોચક  બધૂ  જ  હતી . તે  મારી  ' હા'  માં  ' હા '  મેળવતી  ન  હતી ',  તેના  આત્મા  ને. ઉચિત  લાગતું  હતું  ,  તે  કહેતી  હતી .  મારા. ઘણા. નિર્ણય  ભાવનાપ્રધાન  રહેતા  હતા  ત્યારે  તે  મને. સંતુલિત  કરતી  હતી .  અમારું  જીવન  આનંદ  થી  ચાલતું  હતું  "" ( હિમાલય નો સમર્પણ  યોગ  ભાગ  - 3 )

मृत्यु

मृत्यु एक सत्य है। इसलिये उसे सदैव याद रखे। लेकिन मृत्यु से डरो मत और मृत्यु को कभी भी भुलो मत। जीवन का प्रत्येक दिवस को नही प्रत्येक क्षण को पूर्ण तरह जियें क्योंकि कोई क्षण जीवन मे बाद मे नही आयेगा।            ✍... बाबास्वामी

परमात्मा

परमात्मा को गुरूदेव के रूप में ही पाया | यह जानते हुये भी कि वे एक मनुष्य थे , मैने मेरे गुरूदेव शिवबाबा को ही परमात्मा मान लिया और फिर सारी खोज समाप्त हो गई और एक समाधान प्राप्त हो गया |                हि.स.यो. ४/२५६

कौनसी कौनसी पावन भूमी पर स्थापित हो रही है यह मंगलमुर्तीयाँ?

॥गुरुशक्तियों को प्रणाम॥ ॥गुरुशक्तिधाम॥ कौनसी कौनसी पावन भूमी पर स्थापित हो रही है यह मंगलमुर्तीयाँ? अभी तक गुरुशक्तियों की असीम कृपा में पूज्य स्वामीजी के १२ गहनध्यान अनुष्ठान निर्विघ्न रूप से पार हो गए है और १२मंगलमूर्तियाँ बन चुकी है। इनमें से एक मंगलमूर्ति की स्थापना स्थाई रूप में हो गई है और बाकी मूर्तियाँ अस्थाई रूप में है। 1.प्रथम गहनध्यान अनुष्ठान (२००७) मंगलमूर्ति स्थापना - श्री गुरुशक्तिधाम दांडी, नवसारी , गुजरात , भारत 2.द्वितीय गहनध्यान अनुष्ठान (२००८) मंगलमूर्ति स्थापना -   श्री गुरुशक्तिधाम, लेस्टर, यु.के. 3.तृतीय गहनध्यान अनुष्ठान (२००९) मंगलमूर्ति स्थापना - श्री गुरुशक्तिधाम , मॉन्ट्रियल , Canada 4.चतुर्थ गहनध्यान अनुष्ठान (२०१०) मंगलमूर्ति स्थापना-- श्री गुरुशक्तिधाम , अजमेर , राजस्थान , भारत 5.पंचम गहनध्यान अनुष्ठान (२०११) मंगलमूर्ति स्थापना- श्री गुरुशक्तिधाम , शिरोडा , गोवा , भारत 6.षष्टम गहनध्यान अनुष्ठान (२०१२) मंगलमूर्ति स्थापना- श्री गुरुशक्तिधाम , पुनडी , कच्छ , भुज, भारत 7.सप्तम गहनध्यान अनुष्ठान (२०१३) मंगलमू

आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति

आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति करनी हो तो अपनी इच्छा छोडऩी पड़ती है। अपनी स्वयंम् की कोई इच्छा ही नहीं होती है, सबकुछ "उसकी" इच्छा पर निर्भर होता है। सब लोगों के चित्त से छुपकर साधना करनी होती है। क्योंकि जितना आप अपने परिचितों से दूर रहोगे, उतना ही उनका चित्त भी आप पर नहीं रहेगा और आपका भी उन पर नहीं रहेगा। और इस प्रकार जब आप अपने शरीर से अलिप्त होते हो, तो धीरे-धीरे चित्त से भी अलिप्त होने लगते हो। आपका  बाबास्वामी

मुक्त स्थिति

सभी पवित्र आत्माओं को मेरा नमस्कार .... आपका और मेरा रिश्ता जन्मों जन्मों का है।  एक विशेष लक्ष्य  को लेकर हम बार-बार जन्म लेकर देहधारण कर रहे हैं। लेकिन भौतिक शरीर की समस्याओं के कारण हम अपने  लक्ष्य  को प्राप्त करने में सक्षम नहीं थे। भौतिक शरीर की समस्या यह थी कि यह अच्छे माता-पिता नहीं मिला सका, जो ऐसे शरीर को प्रदान कर सकता है जो आत्म-प्राप्ति कर सकता है और फिर उसे (अपने बच्चे को) प्रदान कर सकता है। आपने इस जन्म में उस शरीर को प्राप्त किया है, इसलिए सबसे पहले मैं आपके माता-पिता को दिल से कृतज्ञता देता हूं। दूसरा, मैं आप का आभारी हूं क्योंकि आप  मुझे पहचानने में सक्षम थे, और मुझे  पता है। अन्यथा, इस जन्म में भी मेरे लिए कोई  उद्देश्य  नहीं छोड़ा होता। अब आप पहले से ही आत्म-प्राप्ति कर चुके हैं, इसलिए अपने शरीर को सभी कर्मों से मुक्त करें, ताकि आप 'मुक्त स्थिति' प्राप्त कर सकें, ताकि आपके लिए एक और भौतिक शरीर फिर से ग्रहण करने के लिए आवश्यक नहीं होगा। यह मेरा और आपका  अंतिम जन्म  है। आपने ऐसा शरीर प्राप्त किया है जो आपको अपने माता-पिता के कारण आत्म-प्राप्ति दे सकता है,

आचार्यों के लिए संदेश

*  सेंटर-आचार्यों को पूज्य स्वामीजी के प्रवचन की केसेट नियमित रूप से सुननी चाहिए और सेंटर के साधकों को आवश्यकता होने पर मार्गदर्शन करना चाहिए। *  सेंटर-आचार्यों ने मधुचैतन्य पढनी चाहिए और दुसरों को उसके लिए प्रेरित करना चाहिए क्योंकि उसमें पूज्य गुरुदेव के संदेश और अन्य कई महत्वपूर्ण जानकारीयाँ होती हैं। अन्य साधकों को अनुभव , लेख , भजन वगैरह लिखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। *  आप जब आचार्यों के स्थान पर होते हो , तब यदि थोडे साधकों से अच्छे संबंध रखते हो और दुसरों की अवगणना करते हो , तो ऐसा करना दोनों के लिए नुकसानकारक होता है। आपका व्यवहार सभी से समान होना चाहिए।                         --- पूज्या गुरुमाँ *  आचार्यों को नियमित ध्यान करना चाहिए। अगर उनकी खुद की स्थिति ठीक नहीं होगी , तो सेंटर की भी स्थिति खराब हो सकती हैं।                               --- पूज्य गुरुदेव मधुचैतन्य अप्रैल २००६

आत्मशांति से ही विश्वशांति

"शांति" आत्मा का शुध्द भाव है, यह आत्मा से ही प्राप्त हो सकता है। वह कभी पुस्तक से या हथियारों से नहीं आ सकती है। हथियारों से तो आप दूसरे को मार ही डालते हैं।  फिर शांति का प्रश्न कहाँ रहता है? राष्ट्र सुरक्षा के नाम पर युद्ध की तैयारी ही करते रहते हैं। और सभी राष्ट्रों का धन का बड़ा हिस्सा हथियारों और फौज पर ही खर्च होता है , जबकि इन दोनों बातों से शांति नहीं आ सकती है। जबकि बातें सभी राष्ट्र विश्वशांति की करते हैं। यानी 'मुँह में राम और बगल में छुरी' वाली बात प्रतीत होती है। इन प्रयत्नों से कभी भी विश्व में शांति नहीं आ सकती है क्योंकि इनके प्रयत्न ही गलत दिशा में हैं। सही दिशा में प्रयत्न कोई भी राष्ट्र नहीं कर रहा है। प्रत्येक राष्ट्र का प्रयत्न आत्मकल्याण की ओर होना चाहिए। "आत्मशांति से ही विश्वशांति" प्राप्त की जा सकती है।  हिमालय का समर्पण योग ६/१५६

अमृत वर्षा

पूरे 24 घंटे में से सिर्फ 30 मिनिट ,मैं जैसा बैठता हूँ वैसा बैठो । कोई देर नहीं हुई हैं।जब जागो तभी सबेरा।कुछ नहीं कल से चालू करो ना। कल से एक आधा घंटा बैठना चालू करो। बाकी सब मैं देख लूगा।अरे सिर्फ बैठो तो सही बाबा। तुम लोग ना इतने बदमाश हो , मैं तुमको 3:30 से 5:30 के बीच मे कई बार आकर उठाता हूँ। लेकिन तुम उठ करके फिर सो जाते हो। आप देखो बराबर कई बार आपकी नींद खुल जाती है, 3:30 और 5:30 इसके बीच के टाइम में खुलती है। थोड़ी सी भी अगर तुम्हारे मे इच्छा है, थोड़ी सी भी।एक कदम आप मेरी ओर चलो तो मैं 10 कदम आपकी ओर चलता हूँ।और आप को बराबर एक सही समय पे ,सही स्थान पर उठाता  हूँ ।लेकिन ऊढाने के बाद भी आप फिर से सो जाते हो तो सोए हुए को कौन उठा सकता है।कभी भी देखो कभी भी ऐसी नींद खुले ना ,तो तुरंत उठ कर के बैठो और ध्यान करो, मेडिटेशन करो। स्वामीजी ने मुझे उठाया हो नियमित ध्यान करो नियमित मेडिटेशन करो और उस मुक्त स्थिति को अपने इसी जीवन काल में प्राप्त करो। आपका बाबा स्वामी 

ગુરુચરણમાં શ્રદ્ધા હંમેશા કેવી રીતે જળવાઈ રહે?

પ્રશ્ન 11: ગુરુચરણમાં શ્રદ્ધા હંમેશા કેવી રીતે જળવાઈ રહે? સ્વામીજી : મને લાગે છે, ગુરુચરણ પર ચિત્ત રાખીને. કારણ કે ગુરુચરણ પર ચિત્ત રાખીશું, તો ત્યાં સારા લોકોની કલેક્ટિવિટી(સામૂહિકતા) છે, સારા સાધકોની કલેક્ટિવિટી. તો આપો-આપ તે કલેક્ટિવિટી આપણને મળે છે, તો આપણું ચિત્ત ત્યાં રહે છે. ઘણીવાર શું થાય છે, ખબર છે? આપ ફરિયાદ કરો છો, આ સાધક ખરાબ છે, તે સાધક ખરાબ છે, તે સાધક ખરાબ છે, સારું. મને બધું દેખાતું હોય છે, સારા પણ સાધક દેખાતા હોય છે, ખરાબ પણ સાધક દેખાતા હોય છે. તમે ખરાબ છો, તેથી તમારી આસપાસ ખરાબ લોકોની કલેક્ટિવિટી છે. તમે સારા રહેશો, તમારી આસપાસ સારાની કલેક્ટિવિટી રહેશે. તે બધા એકત્રિત થઈ જાય છે. દારૂ પીવાવાળા એક સાથે, બીડી પીવાવાળા એક સાથે, ગાંજા પીવાવાળા એક સાથે, આ ખરાબ -ખરાબ લોકો એક સ્થાને સમૂહ બનાવી લે છે, કલેક્ટિવિટી બનાવી લે છે. તો તમારી આસપાસ ખરાબ લોકો છે, તો તુરંત ત્યાંથી ભાગો. કારણ કે આ ખરાબ લોકો છે, તો આપણે ખરાબ છીએ તો જરા સારામાં જાઓને! તો મને બધું દેખાઈ રહ્યું છે. સારા પણ સાધક છે, ખરાબ પણ સાધક છે. બધા પ્રકારના સાધક છે. પરંતુ તમે જેવા છો, તેવા તમારી આસપાસ એકઠા થાય છે.

स्वामीजी कें जीवन का उद्देश

पूज्य  स्वामीजी  कें  जीवन  का  उद्देश  विश्व  की  सभी  आत्माओं  का  आध्यात्मिक  विकास  तथा  उन्हे  जिते  जी  मोक्ष  की  स्थिती  प्रदान  करना  है । इसलिए  वे  इस  अमूल्य  ज्ञान  को  विश्वभर  मे  बाट  रहे  है । स्वामीजी   स्वयं  चैतन्य  साग़र  है  किंतु  स्वयं  को  गुरु  उर्जा  का  माध्यम  मात्र  मानते  है । उनकी  इस  सौम्यता -सादगी  को  शत  शत  नमन !            गुरुमाँ  "आत्मेश्वर "

अनुभव आध्यात्मिक क्षेत्र की प्रगति की पादान

एक दिन सुबह सुबह मैंने सूर्य के दर्शन किये और  सूर्यदेव को ही नमस्कार करके मैंने मेरे गुरुदेव को याद किया और प्रार्थना की "गुरुदेव, 'मेरा मन बड़ी दुविधा में है। कुछ मार्ग बताईये - उपासना पद्धति श्रेष्ठ है या ध्यान श्रेष्ठ है।   बड़ी असमंजस की स्थिति है। आगे का मार्ग नहीं दीख रहा है।" सूरज की पहली किरण के साथ मुझे उत्तर आया। "जो दीख रहा है उसमें उत्तर मत खोज। जो अनुभव हो रहा है उसमें उत्तर है। अनुभव करो, यह अनुभव आध्यात्मिक क्षेत्र की प्रगति की पादान है।   आपका बाबास्वामी

आत्मा का बंधन

कई बार हम मानते हैं कि हम "एक पवित्र आत्मा है" लेकिन क्या कभी हमने ये जानने का प्रयास भी किया है कि पवित्र आत्मा का कितना दायरा हम पार कर पाये है । (१) आत्मा को हमेशा शरीर की सामुहिकता में ऐकत्र होना अच्छा नही लगता। (२) आत्मा हमेशा जहाँ आत्माओ की सामुहिकता होती है वहां अपने शरीर को लेके जाती है । (३) आत्मा समाज, जाति  धर्म व     देश के दायरे को कभी भी महत्व नही देती । (४) आत्मा हमेशा अपने चैतन्य को पाने के लिए लालायित होती है जहां चैतन्य का प्रवाह मिले वहां अपने शरीर किसी भी सीमा से लेके उसे उस स्थान पर पहुंचाती है जहां उसे आगे का मार्गदर्शन प्राप्त हो। (५) चैतन्य के स्थान से जुडने के लिऐ वो सारे बुद्धिके तर्क से भी विरोध करके शरीर को नियंत्रण में रखती है। (६) चाहे वो समाज हो , किसी उपासना पद्धती का कार्यक्रम हो ,चाहे जाति का कोई व्यक्ति हो। इन सबका विरोध करके अपनी आगे की यात्रा प्रारंभ करती है। इन सारी सीमा से जो साधक पार हुऐ हैं,वो ही मोक्ष के मार्ग पर आगे चल सकते है। अन्यथा इन सारे स्वभाव में तुम नही हो तो ये आज समझ लो तुम आत्मा होने का नाटक कर रहे हो, तुम पवि

गुरूशक्तिधाम

पूज्य गुरूदेव - मैं  कहता हूँ  ना  कि  अभी  समय  ऐसा  चल रहा है  कि  बुद्धि  का  बड़ी तेजी  के साथ विकास हो रहा है |  खूब तेजी के साथ बुद्धी  विकसित  ,  विकसित ,  विकसित  , विकसित  ,विकसित...  | उस  तेजी  से  भाव  विकसित नहीं हो रहा है | और भाव विकसित करने के कोई  स्थान  , कोई  जगह नहीं है  | इसलिए  ये  गुरूशक्तिधाम  वह भाव  को विकसित  करेगा  | आज  समाज को  संतुलित  करने के लिए  , समाज को  बैलेंस  करने  के लिए  इसकी बहुत आवश्यकता है  | पूज्य गुरूदेव का प्रवचन गुरूपूर्णिमा -2016 कच्छ समर्पण आश्रम,  पुनडी  , भुज

चन्द्रमा

फिर उन्होंने शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से चन्द्रमा के प्रकाश में बैठकर चन्द्रमा पर चित्त एकाग्र कर ध्यान करना सिखाया । रोज अभ्यास की समयाविधि बढ़ती गई और पूर्णिमा की रात सम्पूर्ण रातभर कराया । " चित्त को चन्द्रमा पर एकाग्रकरो और स्वयं के और चन्द्रमा के बीच एक सूक्ष्म संबंध कायम करो और यह महसूस करो कि तुमने अपना सम्पूर्ण समर्पण चन्द्रमा को देवता मानकर कर दिया है। और चन्द्रमा की शीतल, पवित्र ऊर्जा चन्द्रमा के प्रकाश के रूप में अपने पर बरस रही है और आप उस चन्द्रमा के प्रकाश में शीतलता अनुभव कर रहे हो। और वह शीतलता तुम सूर्यनाड़ी के ऊपर विशेष रूप सेअनुभव कर रहे हो। और धीरे-धीरे लिवर ठंडा हो रहा है और उस साधना से आत्मशान्ति अनुभव हो रही है ।" हि.का. स. योग 1⃣ पेज 66, H 0⃣3⃣2

आत्मसाक्षात्कार एक संस्कार

आत्मसाक्षात्कार  एक *"संस्कार"* है । सद्गुरु  को  अगर  हम  संपूर्ण  *"समर्पित "* है , तो  सदगुरु  के  गुण  भी  हमारे  में  उतरना  चाहिए । सदगुरु  का  चित्त  *"शुद्ध"*  है ,टों  हमारा  क्यॊ  नही ?         सदगुरु  के  मन  में *"ईर्षा"* भाव  नही  है , तो  मेरे  मन  में  क्यों  है ?         सदगुरु  के  मन  में  किसी  के  भई  प्रति  *"दुर्भावना "*नही  है , तो  हमारे  मन  में  क्यों  है ?         सदगुरु  *"निष्पाप"*  है ,तो  मैं  क्यों  नही ?         सदगुरु  को  *"लोभ"*  नही  है ,तो  मुझे  *"लोभ "* क्यों  है ? इन्ही  सब  बातों  के  लिए  *"आत्मचिंतन "* करना  हीं  गहन  ध्यान  अनुष्ठान  का  मुख्य  *"उद्देश "* है ।                             *श्री बाबा स्वामी*                            *ग .ध्या .अ .संदेश*                              *09/03/2013*

भूमिमाता

" भूमिमाता चित्तशुद्धि करने में बड़ी सहायक होती है। जब चित्त सशक्त्त हो जाता है, तो शरीर भी स्वस्थ हो जाता है।भूमि की गुरुत्वाकर्षण शक्त्ति चित्त को और शरीर को संतुलन में लाने का कार्य करती है, बशर्ते हम उस संतुलन के लिए तैयार हो जाएँ।प्राकृतिक शक्तियों का उपयोग स्वेच्छा से किया जा सकता है। जबरदस्ती के साथ किसी को भी प्रकृति के साथ जोड़ा नही जा सकता हैं।"कुछ दिन अभ्यास करने के बाद अनुभव किया कि कुछ समय तक भूमि पर बैठकर कर ध्यान साधना करने पर चित्त जल्दी एकाग्र होता था और बाद में बड़ा शांत और अच्छा लगता था और शरीर में भी एक हल्कापन महसूस होता था । एक दिन सुबह गुरुदेव ने अपनी हिमालय-प्रवास की बातें बताना प्रारंभ किया और उन्होंने बताया , हिमालय... हि. का.स.योग 1⃣ पेज 67 H0⃣3⃣3⃣

अपेक्षा

सभी पूण्यआत्माओं को मेरा नमस्कार .....   'अपेक्षा' एक सामान्य सा लगने वाला शब्द हैं लेकिन इस एक शब्द पर गीता जैसा महान ग्रंथ लिखा गया हैं | क्यों ? सोचने का विषय है क्योंकि 'अपेक्षा' सदैव शरीर की ही होती हैं, 'आत्मा' की कभी कोई 'अपेक्षा' ही नहीं होती हैं | मनुष्य का ध्यान आत्मा के माध्यम से परमात्मा से जुड़ने का प्रयास हैं और  यह प्रयास वह करता भी हैं | लेकिन जब वही ध्यान-साधना में कोई भी प्रकार की अपेक्षा आ जाती हैं तो समूची साधना ही व्यर्थ हो जाती हैं क्योंकि 'अपेक्षा' की जाती हैं शरीर से और आत्मसाधना की जाती हैं आत्मा से | इसीलिए कहता हूँ  कि दिन के केवल ३० मिनट बिना 'अपेक्षा' के नियमित ध्यान करो, जीवन की सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी | मेरा ध्यान लगना चाहिए , यह भी अपेक्षा मत रखो |   यह तभी संभव हैं जब आप आपके जीवन के ३० मिनट प्रतिदिन नियमित  रूप से मुझे दान करें | दान जो किया जाता हैं , वह वापस कभी नहीं लिया जाता | यानि ३० मिनट  दान करने के बाद आप उस ३० मिनट में रोज कुछ भी नहीं कर पाएँगे | उस ३० मिनट में आपको आपके जीवन की समस्याओं प

एक निर्माण कार्य में आपका योगदान

 पूज्य गुरूदेव  -  आप  अनुभव लेकर के देखो  |  किसी  एक निर्माण कार्य में  आपका  योगदान  ,  आपका  जुडा़व. .. छोटी से  छोटी राशि  का  हो  ,  तो  भी  चलेगा  | अच्छा  !  सपोज  ( मान  लो  ) आप  धन देने  की  स्थिति  में  नहीं  हैं  ,  तो   आप  श्रमदान  करो  ,  समयदान  करो  |  समयदान  कर सकते हो  और  समयदान  करने  की भी  स्थिति  में  नहीं  हैं  ,  सिर्फ   बिस्तर  पे  पड़े  हुए  हो  ,  कुछ  नहीं  हो  सकता  ...  तो  प्रार्थना  करो  |  प्रेयर  करो ! ! ' हे  परमात्मा  !  जल्दी  से जल्दी  गुरूशक्तिधाम  बन जाए  | ' कहाँ  से पेसा आएगा  ?  सब  हो जाएगा | सिर्फ  तुम  प्रेयर  करो  ,  तुम  प्रार्थना  करो  . प्रार्थना  में खुब शक्ति है | तो जैसे  - जैसे  प्रार्थना करोगे  , जैसे  - जैसे  प्रेयर करोगे  , ये  तो  कल होने ही वाला है  , ये तो कल बनने ही वाला है |  जब  बनेगा  , आपको  समाधान  प्राप्त होगा  |  आपको  सेटिस्फेक्शन  प्राप्त  होगा  कि  इसके निर्माण कार्य मैं  मेंने  भी खुब  ह्रदय से खुब  प्रार्थना की थी.. पूज्य गुरूदेव का प्रवचन गुरूपूर्णिमा -2016 कच्छ समर्पण आश्रम पुनडी भुज..

अकेलेपन का उपयोग

अकेलेपन  का  उपयोग ,  एकांत  का  उपयोग  आत्मचिंतन के  लिए करो,  आत्मा  के  साथ  रहने के लिए  करो, आत्म-अनुभुती के लिए करो,  आत्मज्ञान  प्राप्ती के लिए  करो। सदैव  याद  रखो , "जिवन मे  सबकुछ  एक  सा  नही मिल  जाता । जिवन मे  एक  प्लस  (धनात्मक )रहता है ,  तो  एक  माइनस (त्रृणातमक )रहता है । और जब  माइनस  प्लस  हो  जाता है ,  तो  प्लस  माइनस  हो  जाता है । तो  जीवन मे  कभी भी किसी भी कारण  से  आपको  फ्री  टाईम  (खाली समय)  मिलता है, तो आपके अहोभागय कि आपको  फ्री  टाईम  मिला! उस  फ्री टाईम का  उपयोग  अपने-आपको जानने के लिए करो, ध्यान  करने के लिए करो,  मनन  करने के लिए करो ।और  अगर  खाली  समय  नही  मिलता है,  तो निकालो। अपने इस दौड -भाग के  जीवन मे से थोडा  समय  अपने  लिए  निकालना  बहुत  आवश्यक है Madhuchaitanya July/August/Sept. 2009

बुरा मत सोचो

🙈आप बुरा मत देखो🙈,  🙉आप बुरा मत सुने🙉,  🙊आप बुरा मत बोलो🙊,  इतना ही काफी नही हैं | 🐒आप बुरा मत सोचो🐒| आप अपना भी बुरा मत सोचो  क्योंकि जो सोचोगे,   सारी ऊजाँ वही मिलेगी और फिर न होनेवाला हो तो भी  वैसा ही बुरा होगा जो आपने सोचा था| आपकी ध्यान  से प़ाप्त सारी सकारात्मक  ऊजॉ आप क्या सोचते हों उसकाे प़ाप्त हो जाती है|       चितशक्ति 'चंन्द' के समान है| चाँदनी  रात में चाँद दुःखी  आदमी को और दुःखी और प़सन्न आदमी को अधिक प़सन्न कर देता है| वास्तव में,  चंन्द्र स्वयं कुछ भी नही करता,  वह हमारे 'भाव' को वूध्धिगत कर देता है| ठीक इस प़कार का कायँ चितशक्ति का होता है| आप जो सोचोगे वह उसे ही पूरी करेगी| इसलिए सदा ही अच्छा  सोचो,  सकारात्मक सोचो तो जीवन में भी सब अच्छा और "मंगल" ही होगा | ~सतगुरु के हदय से पेज:99/100

गुरु अर्थात हमारी आत्मा

गुरु" अर्थात हमारी आत्मा। और गुरुओं के गुरु अर्थात हमारे सतगुरु। गुरु के चरणों में समर्पित रहते हुए, सतगुरु के चरणों में संपूर्ण समर्पित होते हुए हमारा प्रत्येक क्षण जब बीतेगा तो जीवन का वो  अंतिम क्षण हमें कभी भी पथभष्ट नहीं करेगा। हम कभी भी अपने पथ से भटकेंगे नहीं। मुख्य मार्ग  पर तो हम हैं , कितु हमारे उस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग केवल और केवल आत्मा को ही पता है, आत्मा ही जानती हैं, आत्मा को ही बढ़ना है, आत्मा ही बढ रहि है, आत्मा ही बढ़ेगी, और उस अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करेगी। आत्मा ही हमारी गुरु है। इस क्षण से हम केवल आत्मा बनके जिएंगे। केवल आत्मा बनके ही बढ़ेंगे । गुरुमाँ मधुचेतन्य 2017

अनुभूति

"अनुभूति प्राप्त करना गुरु कृपा में होता है | और उसी कृपरूपी लहर को पकड़े रखना ही जीवन में कठिन होता है | क्योंकि कृपा पाना क्षणभर की बात है , लेकिन उस कृपा को बनाए रखना सारे जीवन भर की साधना होती है |" हि.स.यो.1/176

प्रेरक प्रसंग सानिध्य

      पुराने समय की बात है| राजा आदित्यवर्धन शिकार का पीछा करते-करते वन में दूर निकल गए| उनके साथ कोई भी नहीं था तथा वे वापसी का रास्ता नहीं जानते थे| वन में राह खोजते-खोजते वे एक बस्ती के पास पहुँचे| "कोई है " दो-चार बार पूछा, किन्तु उतर नहीं मिला| उस समय वहाँ कोई भी नहीं था| राजा भूख-प्यास से व्याकुल था| उसने कुएँ से पानी निकाला तथा अपनी प्यास बुझाई| मन ही मन ईश्वर को तथा बस्तीवालों को धन्यवाद दिया क्योंकि प्रभुकृपा से ही वह बस्ती तक पहुँचा और बस्ती के कुएँ पर रस्सी तथा गागर/गगरिया होने के कारण ही प्यास बुझा सका| फिर उसने घोड़े को पानी पिलाया और पेड के नीचे बैठ कर सुस्ताने लगा| अभी आँख  लगी ही थी कि एक आवाज से वह चौंक कर उठ बैठा| उस वृक्ष पर एक प्यारा-सा तोता फिर चीख कर बोला, "अरे!! जल्दी आओ| कोई आया है| धनवान लगता है, जल्दी इसके गहने छीन लो| वस्त्र भी मूल्यवान हैं, इन्हें भी ले लो|" राजा ने आसपास देखा| कोई भी नहीं आया था| राजा विस्मित हो तोते को देखते ही रह गया|         कुछ समय विश्राम कर राजा आगे चल दिया|काफी दूर जाने पर एक आश्रम देखा| राजा जैसी ही आश्रम में प्

स्वार्थ से किया गया कार्य

स्वार्थ  से  किया  गया  कार्य  शरीर  से  शरीर  तक  पहुँचता  है । क्योंकि  स्वार्थ  शरीर  का  ही  होता  है । किसिको  दीखानेके  लिए  किया  गया  कार्य  अहंकार  बढ़ाता  है  और  अहंकार  भी  तो  शरीर  से  ही  संबंधित  है  और  अहंकार  बढ़ाने  के  लिए  किया  गया  कार्य  भी  शरीर  से  ही  शरीर  तक  होगा   l ही .का .स .योग . भाग ५

कर्म

कोई कीसी को कभी भी सुखी नही कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ती अपने कर्म से सुखी या दुखी होता है। भले ही वह आपका अपना बच्चा ही क्योन हो। आप अपने बच्चे को क्या सही है , क्या गलत है उतना बताने का अपना कर्तव्य करे, बस यही अापके हाथ मे है।बच्चा भी एक आत्मा है। वह भी अपने कर्म के भोग भोगने ही जन्मा है।यह सदैव याद रखो तो ही आप अपने जिवन मे मुक्त अवस्थाको प्राप्त कर सकते हो।                     बाबा स्वामी 25/10/2017

आत्मा तो परमात्मा का ही छोटा स्वरुप

"आत्मा तो परमात्मा का ही छोटा स्वरुप है | वह हमारे पिछले जन्मों का और आगे का सब जानती है इसीलिए, जो योग्य हो, वही निर्णय वह लेती है | वे निर्णय वर्तमान समय में योग्य न भी लगते हों लेकिन भविष्य में वही निर्णय योग्य जान पड़ता हैं | यानी आत्मा भविष्य को ध्यान में रखकर निर्णय लेती है, जबकि मष्तिष्क भविष्य के बारे में केवल सोच सकता है लेकिन भविष्य क्या है, यह वह कभी नहीं जानता है | अगर हमारा वर्तमान, आत्मा के निर्देशानुसार हो तो भविष्य उज्जवल ही होगा |" ("हिमालय का समर्पण योग", भाग-५, पेज ३३८)

आत्मा का बंधन

कई बार हम मानते हैं कि हम "एक पवित्र आत्मा है" लेकिन क्या कभी हमने ये जानने का प्रयास भी किया है कि पवित्र आत्मा का कितना दायरा हम पार कर पाये है । (१) आत्मा को हमेशा शरीर की सामुहिकता में ऐकत्र होना अच्छा नही लगता। (२) आत्मा हमेशा जहाँ आत्माओ की सामुहिकता होती है वहां अपने शरीर को लेके जाती है । (३) आत्मा समाज, जाति  धर्म व     देश के दायरे को कभी भी महत्व नही देती । (४) आत्मा हमेशा अपने चैतन्य को पाने के लिए लालायित होती है जहां चैतन्य का प्रवाह मिले वहां अपने शरीर किसी भी सीमा से लेके उसे उस स्थान पर पहुंचाती है जहां उसे आगे का मार्गदर्शन प्राप्त हो। (५) चैतन्य के स्थान से जुडने के लिऐ वो सारे बुद्धिके तर्क से भी विरोध करके शरीर को नियंत्रण में रखती है। (६) चाहे वो समाज हो , किसी उपासना पद्धती का कार्यक्रम हो ,चाहे जाति का कोई व्यक्ति हो। इन सबका विरोध करके अपनी आगे की यात्रा प्रारंभ करती है। इन सारी सीमा से जो साधक पार हुऐ हैं,वो ही मोक्ष के मार्ग पर आगे चल सकते है। अन्यथा इन सारे स्वभाव में तुम नही हो तो ये आज समझ लो तुम आत्मा होने का नाटक कर रहे हो, तुम पवित्