आत्मा का बंधन

कई बार हम मानते हैं कि हम "एक पवित्र आत्मा है"
लेकिन क्या कभी हमने ये जानने का प्रयास भी किया है कि पवित्र आत्मा का कितना दायरा हम पार कर पाये है ।
(१) आत्मा को हमेशा शरीर की सामुहिकता में ऐकत्र होना अच्छा नही लगता।
(२) आत्मा हमेशा जहाँ आत्माओ की सामुहिकता होती है वहां अपने शरीर को लेके जाती है ।
(३) आत्मा समाज, जाति  धर्म व     देश के दायरे को कभी भी महत्व नही देती ।
(४) आत्मा हमेशा अपने चैतन्य को पाने के लिए लालायित होती है जहां चैतन्य का प्रवाह मिले वहां अपने शरीर किसी भी सीमा से लेके उसे उस स्थान पर पहुंचाती है जहां उसे आगे का मार्गदर्शन प्राप्त हो।
(५) चैतन्य के स्थान से जुडने के लिऐ वो सारे बुद्धिके तर्क से भी विरोध करके शरीर को नियंत्रण में रखती है।
(६) चाहे वो समाज हो , किसी उपासना पद्धती का कार्यक्रम हो ,चाहे जाति का कोई व्यक्ति हो। इन सबका विरोध करके अपनी आगे की यात्रा प्रारंभ करती है।
इन सारी सीमा से जो साधक पार हुऐ हैं,वो ही मोक्ष के मार्ग पर आगे चल सकते है।
अन्यथा इन सारे स्वभाव में तुम नही हो तो ये आज समझ लो
तुम आत्मा होने का नाटक कर रहे हो, तुम पवित्र आत्मा नही हो।
तुम्हारा तुम्हारे शरीर के आवरणों पर ही कोई नियंत्रण नही है तो आगे की प्रगति कैसे करोगे।

ये सारे आवरणों को तुमने अपने आप पे हावी कर दिया है ।
ये सारे बाहर के आवरणों को तुम पे थोपा गया है तुम लेके तो नही आये थे ।
तुम बार-बार बुद्धि का शिकार हो जाते हो और तुम्हारा समय बरबाद कर रहे हो, जरा सोचो! तुम क्या हो और अब तुम्हें क्या करना है, फैसला तुम्हारे हाथ में है शरीरों की सामुहिकता में रहना है या आत्मा की सामुहिकता में ऐकत्र होना है। मार्ग मैंने बता दिया है आगे का तुम जानो ।

आपका
बाबा स्वामी

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