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Showing posts from September, 2018

समाधान आत्मा की शुद्ध भावना

समाधान तो आत्मा की शुद्ध भावना है, फिर वह बाहर कैसे मिल सकता है ? औऱ जो पाने की बात कर रहे हो, वह पाकर भी समाधान थोड़े मिलने वाला है।वह जो पाना चाहते हो, वह पाकर आसक्त्ति की आग और भड़केगी। ' और ', 'और 'पाने की इच्छा होगी । हमें आसक्त्ति को  ''समाधान" से ही रोकना होगा ।यह चंचल चित्त "यह मिलना चाहिए " कहकर भविष्य में ले जाता हैं। "यह मिलना चाहिए " मतलब "यह मिला नहीं है "और " यह मिला नहीं है " मतलब अतृप्ति,असमाधान । सब साथ में ही लगा रहता हैं। इसलिए जो मिला है, उसके लिए ईश्वर का आभार मानना चाहिए। और पाने की आसक्त्ति,लालसा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि " यह मिलना चाहिए " , ऐसा हम जब सोचते हैं,तब हम कभी वर्तमान मे नहीं रहते हैं। और आध्यात्मिक प्रगति तो वर्तमान में ही हो सकती हैं।"     हि. का.स.यो.👉(1)पेज 43👉H014

अहंकार से साधक सामूहिकता से बाहर हो जाता है और ध्यान छूट जाता है

 इस ध्यान पद्धति मे सबकुछ आसान है,  पर इसमें बने रहना ही कठिन है। इसका पहला दोष है कि इसमें साधक को आहंकार आता है। अहंकार इसलिए आता है क्योंकि वह ध्यान के माध्यम से सामूहिक शक्ति के साथ जुड जाता है और फिर एक साधक में हजारों लोगों का बल आ जाता है। और फिर जब वह गुरुकार्य करता है तो,  वह बडी आसानी से हो जाता है और कार्य संपन्न हो जाने पर उसे अहंकार आ जाता है कि उसने वह कार्य किया ! एक मनुष्य को हजारों लोगों की शक्ति दी जाए तो ऐसा होना स्वाभाविक है। इसी अहंकार से साधक सामूहिकता से बाहर हो जाता है और ध्यान छूट जाता है। क्योंकि अहंकार उत्पन्न होने पर वह असंतुलित हो जाता है और वह जब असंतुलित हो गया तो वह ध्यान कैसे करेगा ? उसका ध्यान तो छूट ही जाएगा। यह इस ध्यान की पद्धति का बडा दोष हैं। हि.स.योग.४, पेज. २८0.

प्रश्न : कोई लिफाफा खोले बिना, पत्र के भीतर क्या लिखा है , क्या वह स्वामीजी जान सकते है ?

प्रश्न :    कोई लिफाफा खोले बिना,  पत्र के भीतर क्या लिखा है , क्या वह स्वामीजी जान सकते है ? स्वामीजी : लिफाफा स्वामीजी  तक भेजने की आवश्यकता नही है । लिफाफा दुनिया में कही भी लिखा जाए, उसे  जाना जा सकता है । मधुचैतन्य जू./ऑ./सप्टें.2005

कौनसी कौनसी पावन भूमी पर स्थापित हो रही है यह मंगलमुर्तीयाँ?

****** *॥गुरुशक्तिधाम॥* ****** कौनसी कौनसी पावन भूमी पर स्थापित हो रही है यह मंगलमुर्तीयाँ? अभी तक गुरुशक्तियों की असीम कृपा में पूज्य स्वामीजी के १२ गहनध्यान अनुष्ठान निर्विघ्न रूप से पार हो गए है और *१२मंगलमूर्तियाँ बन चुकी है।* इनमें से एक मंगलमूर्ति की स्थापना स्थाई रूप में हो गई है और बाकी मूर्तियाँ अस्थाई रूप में है। *प्रथम गहनध्यान अनुष्ठान (२००७)* मंगलमूर्ति स्थापना - श्री गुरुशक्तिधाम दांडी, नवसारी , गुजरात , भारत *द्वितीय गहनध्यान अनुष्ठान (२००८)* मंगलमूर्ति स्थापना -   श्री गुरुशक्तिधाम, लेस्टर, यु.के. *तृतीय गहनध्यान अनुष्ठान (२००९)* मंगलमूर्ति स्थापना - श्री गुरुशक्तिधाम , मॉन्ट्रियल , Canada *चतुर्थ गहनध्यान अनुष्ठान (२०१०)* मंगलमूर्ति स्थापना-- श्री गुरुशक्तिधाम , अजमेर , राजस्थान , भारत *पंचम गहनध्यान अनुष्ठान (२०११)* मंगलमूर्ति स्थापना- श्री गुरुशक्तिधाम , शिरोडा , गोवा , भारत *षष्टम गहनध्यान अनुष्ठान (२०१२)* मंगलमूर्ति स्थापना- श्री गुरुशक्तिधाम , पुनडी , कच्छ , भुज, भारत *सप्तम गहनध्यान अनुष्ठान (२०१३)* मंगलमूर्ति स्थापना - श्री ग

श्री गुरुशक्तिधाम दुनिया का नया आविष्कार

गुरुशक्तिधाम में स्थापित मंगलमूर्ति की विशेषताएँ --- १) इस मूर्ति का साकार रूप पूज्य स्वामींजी का ही हैं। ऐसा पहली बार हुआ हैं की कोई गुरु ने अपने जीवित होते हुए अपनी मूर्ति बनवाई। २) इस मूर्ति में पूज्य स्वामीजी ने अपने जीवनकाल में अपने स्वयं के प्राण स्वयं  डाले हैं। यानि यह मूर्ति जिसकी हैं उसीने अपने जीवनकाल  उसमें अपने प्राण डाले हैं। और इसीलिए *यह मूर्ति जीवंत मूर्ति हैं।* ३) यह मूर्ति इस विश्व की  *आत्मसाक्षात्कार देने वाली , मोक्ष प्रदान करनेवाली* एकमेव मूर्ति हैं। इसके सान्निध्य में आनेवालों को एक *सुरक्षा कवच भी प्राप्त होता हैं।* यह मूर्ति अगले 800सालों तक कार्य करेगी। पूज्य स्वामीजी के समाधिस्थ होने के बाद यह *जीवंत मुर्तियाँ* ही स्वामीजी के आध्यात्मिक कार्य की  उत्तराधिकारी है और कोई नहीं। मंगलमूर्ति में स्वयं के प्राणो .....

भीतर का 'मैं' जब तक जीवित है, तब तक ध्यान कभी भी नही लग सकता

आपके भीतर का 'मैं' जब तक जीवित है, तब तक ध्यान कभी भी नही लग सकता। *'मेरा'* ध्यान लग रहा है। *'मेरा'* ध्यान नही लग रहा है.... *'मुझे'* ध्यान की अवस्था  प्राप्त हुई है ... *मुझे* ध्यान की अच्छी अवस्था प्राप्त नही हुई है...अरे,  यह *'मैं'* कौन है ? इस *'मैं'* को छोड़ दो ।  विलीन कर दो। अच्छा हो रहा है, स्वामीजी की कृपा। अच्छा नही हो रहा है , स्वामीजी की कृपा। अपनी ईच्छा को ही मत बाँधो। "स्वामीजी मुझे अच्छा ध्यान लगाओ।" क्यूँ लगाऊ ? जब तेरी स्थिती अच्छी हो जाएगी, माँगने की भी आवश्यकता नही होगी !  ध्यान कब लग गया, पता ही नही चलेगा। उसके लिये सुपात्र बनो। भीतर भूतकाल का जहर भरकर रखा हुआ है। रोज ध्यान करते हो, ग्रहण करते हो, जहर मे डालते हो ! वह भँवरा बेकार मे मेरा अमृत खराब कर रहा है। तो सबसे पहले जहर को निकाल कर फेको। ताकी मैं आपको उज्ज्वल भविष्य दे सकुँ। मधुचैतन्य जुलाई - 2005
स्त्री को दूसरा दर्जा देकर वह अपने ही जन्म को भूल रहा है यानी अपनी जड़ पर प्रहार कर रहा है। वह अपनी माँ को भूल रहा है। जो पुरुष अपनी माँ से अधिक अनुराग रखता है , वह कभी भी किसी स्त्री का अपमान नहीं कर सकता है। भाग - १ *॥जय बाबा स्वामी॥* आपके भीतर का 'मैं' जब तक जीवित है, तब तक ध्यान कभी भी नही लग सकता। *'मेरा'* ध्यान लग रहा है। *'मेरा'* ध्यान नही लग रहा है.... *'मुझे'* ध्यान की अवस्था  प्राप्त हुई है ... *मुझे* ध्यान की अच्छी अवस्था प्राप्त नही हुई है...अरे,  यह *'मैं'* कौन है ? इस *'मैं'* को छोड़ दो ।  विलीन कर दो। अच्छा हो रहा है, स्वामीजी की कृपा। अच्छा नही हो रहा है , स्वामीजी की कृपा। अपनी ईच्छा को ही मत बाँधो। "स्वामीजी मुझे अच्छा ध्यान लगाओ।" क्यूँ लगाऊ ? जब तेरी स्थिती अच्छी हो जाएगी, माँगने की भी आवश्यकता नही होगी !  ध्यान कब लग गया, पता ही नही चलेगा। उसके लिये सुपात्र बनो। भीतर भूतकाल का जहर भरकर रखा हुआ है। रोज ध्यान करते हो, ग्रहण करते हो, जहर मे डालते हो ! वह भँवरा बेकार मे मेरा अमृत खराब कर रहा है। तो सबसे पहले ज

अनुभूती सत्य है

अनुभूती वह सत्य है जो माया के आवरण को तोड देता है।जिस प्रकार से कभी कभी आकाश मे धुंध रहती है,लेकीन तब तक जब तक सूर्य उदय नही होता।एक बार सूर्य उदय हो जाता है सारा अंधेरा दूर हो जाता है।ठीक इसी प्रकार से एक बार जीवन मे अनुभूती का  सूर्य उदय हो जाए तो सारी भ्रम की स्थिती दूर हो जाती है। हि स यो-3,पृ-278

आध्यात्मिक प्रगति की पाँच पादाने

चौथी पादान : जीवंत सद्गुरु को मानना। यह सबसे आसान और सबसे कठिन कार्य है। सबसे आसान इसलिए है क्योंकि परमात्मा के इस माध्यम के पास आसानी से पहुँचा जा सकता है। क्योंकि यह माध्यम शिष्य के जीवनकाल में जीवंत रूप से उपस्थित होता है। एक मनुष्य जो अपने ही जैसा दिखता है , अपने ही जैसे हाव-भाव करता है , अपने ही जैसे सामान्य व्यवहार करता है , उसे परमात्मा मानना बडा कठिन मालूम होता है। ऐसा इस कारण होता है कि हमने सदियों से यह मान रखा है कि परमात्मा यानि वह जो वर्तमान में नहीं है , भूतकाल में ही है। यह केवल हमने मानकर रखा है जबकि वर्तमान में तो होता ही है। जीवंत गुरु की सामूहिक शक्तियाँ होती हैं। क्योंकि जिन लोगों का समर्पण उसके प्रति हुआ है या जिसे वह समर्पित हुआ है , उन शुद्ध आत्माओं की सामूहिकता की एक बड़ी शक्ति उसके साथ सदैव होती ही है। इस प्रकार जीवंत सद्गुरु से जुड़कर , वास्तव में , हम जीवंत शक्तियों के साथ जुड़ जाएँगे। जीवंत गुरु तक पहुँचना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जीवंत गुरु ही जीवंत अनुभूति करा सकता है। परमात्मा की अनुभूति कराने के लिए जीवंत सद्गुरु चाहिए और जीवंत अनुभूति लेने क

प्रश्न : क्या स्वामीजी विश्व में सर्वत्र विद्यमान है ?

प्रश्न :  क्या स्वामीजी विश्व में सर्वत्र विद्यमान है ? स्वामीजी :  विश्व में सर्वत्र विद्यमान परमात्मा है। परमात्मा से स्वामीजी जुड़े है। परमात्मा अलग है ।स्वामीजी अलग है । हाँ , जो साधक स्वामीजी के माध्यम से सर्वत्र जुड़ते है,  उनकी दृष्टी में स्वामीजी व सर्वत्र एक ही है । उनके लिए ही स्वामीजी सर्वत्र है । इसलिए दुनिया का कोई भी व्यक्ती इच्छा करे, तो दुनिया में कही भी स्वामीजी की अनुभुती प्राप्त कर सकता है । यानी स्वामीजी सर्वत्र है , सिर्फ सर्वत्र को ग्रहण करने की इच्छा होनी चाहिए ! मधुचैतन्य जू./ऑ./स.2005

आध्यात्मिक प्रगति के लिए चित्तशुद्धि अत्यंत आवश्यक

गुरुदेव की गुफा के आगे दाहिनी ओर एक जलप्रपात था। ऐसी ही एक सुबह थी। गुरुदेव ने कहा,"मैंने इसलिये तुम्हें उस जलप्रपात के पानी पर एकाग्रता करने के लिए कहा था क्योंकि पानी केवल शरीर को शुद्ध नहीं करता, बल्कि आत्मा को भी शुद्ध करता है, चित्त को भी शुद्ध करता है। और आध्यात्मिक प्रगति के लिए चित्तशुद्धि अत्यंत आवश्यक है। चित्तशुद्धि आध्यात्मिक प्रगतिरूपी भवन की आधार शिला हैं। बिना चित्तशुद्धि के आध्यात्मिक प्रगति संभव ही नहीं है। चित्तशुद्धि किए बिना आध्यात्मिक प्रगति की शुरुआत ही नहीं की जा सकती है। चित्तशुद्धि किए बिना हम हमारे काम के भी नहीं है और दूसरों के काम के भी नहीं हैं।"     🌸🌸🌸🙏🌸🌸🌸 हि. का. स. यो.👉(1)पेज 42👉H012

आध्यात्मिक ज्ञान से प्राप्त हुई ऊर्जा

मैं तुझे सत्य धटना बताता हूँ। उत्तरखंड के एक रामपाल राजा की कहानी मेरे गुरु ने बताई थी। वह अतिप्राराक्रमी, अतिबलशाली राजा था। जीवन में आनेवाली समस्या का जब कोई निदान नहीं मिलता , तब वह श्री मैत्री ऋषि के आश्रम में पहुँच जाता था। कुछ दिन उनके सान्निध्य में रहता और कुछ दिनों के बाद वापस जाकर अपना राज्य-कारभार चलाता था। पहली बार वह तब गया था, जब वह युद्ध में हार गया था। दूसरी बार वह अपनी पत्नी से झगड़ा होने पर आश्रम में, गुरुसन्निध्य में गया। तीसरी बार एक गृहयुद्ध के भय से गुरु के सान्निध्य में गया। और चौथी बार , पुत्री की मृत्यु हो जाने पर गुरुसन्निध्य में गया और अपने मन को शांत किया। वह अपनी लड़की से बहुत अधिक प्रेम करता था और उसके बिना वह जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता था। इसलिए उसकी लड़की की मृत्यु से थोड़े समय के लिए उसके मन में वैराग्य की भावना जागी थी, पर वह क्षणिक ही थी। थोड़े समय बाद वह अपने लड़के के व्यवहार से दुःखी होकर फिर से गुरुसन्निध्य में गया। प्रत्येक बार श्री मैत्री ऋषि उसके दुःखों को छोड़कर आध्यात्मिक चर्चा ही उससे करते थे। यह राजा उनके प्रवचन जब आश्रम के अन्य शिष्यों के स

गुरुसान्निध्य

गुरुसान्निध्य का अधिक समय पूर्वजन्म के बुरे कर्मों को नष्ट करने में ही जाता है। और जैसे ही बुरे कर्म नष्ट होते हैं , शरीर नए कर्मों के जाल में उलझ जाता है और गुरुसन्निध्य छूट जाता है। और आध्यात्मिक प्रगति तो बाद का ज्ञान है। यह ठीक वैसा ही है कि एक गलत दिशा में गलत उदेश लेकर एक मनुष्य दौड़ता है और अपने गलत दौड़ने से गिर पड़ता है। उसके पैर में चोट लग जाती है। और अब दौड़ नहीं सकता , इसल पड़ा हुआ है। और पैर में तकलीफ है , इसलिए डॉक्टररूपी ( वेद्यरुपी ) गुरु के पास आता है। अपने जख्म पर पट्टी बंँघवाता है , दवा-दारु करवाता है और अपने जख्म ठीक करवाता है। और वह दौड़ नहीं सकता , इसलिए डॉक्टररूपी गुरु के पास होता है , पर उसका चित्त तो अभी भी उसी दिशा में होता है। वह केवल शरीर से गुरु के पास होता है। और जिस दिन वह मनुष्य स्वस्थ होता है , वह गुरुसन्निध्य को छोड़कर फिर से गलत दिशा में , गलत मार्ग से दौड़ना प्रारंभ कर देता है। यानी वह मनुष्य गुरुसन्निध्य में केवल स्वस्थ होने के लिए आया था। आध्यात्मिक रुप से कभी जुड़ा ही नहीं है, तो वह आध्यात्मिक ज्ञान कैसे पाएगा ? हिमालय का समर्पण योग भाग - ३

चित्त

हमारा स्वयं का चित्त शुद्ध और पवित्र नहीं होता है , और हमारे इस चित्तरूपी कमण्डलु में हम जीवनभर अमूत इकठ्ठा करते रहते हैं , कोसी  मंदिर में जाते हैं , वहाँ से थोड़ा अमूत इकट्ठा करते हैं , अपने कमण्डलु में डालते हैं , किसी स्वामी के पास जाते हैं ब, वहाँ से थोड़े चैतन्य ग्रहण करते हैं अपने कमण्डलु में डालते हैं , किसी तीर्थस्थान पर जाते हैं , वहाँ से थोडा़ चैतन्य ग्रहण करते हैं और अपने कमण्डलु में डालते हैं , किसी समाधिस्थ गुरु के पास जाते हैं , वहाँ से थोड़ा चैतन्य ग्रहण करते हैं और अपने कमण्डलु में डालते हैं। लेकिन अगर हमारा चित्त ही शुद्ध नहीं है , तो जीवनभर कितना भी हम अमूत इकट्ठा कर लें , भीतर के जहर से वह अमूत भी जहर हो जाएगा। यानी अब हमने अमूत इकट्ठा करने की प्रक्रिया बंद कर देनी चाहिए। प्रथम अपने चित्त की शुद्ध और पवित्र करना चाहिए। दूसरा , अब यह चित्त पवित्र कैसे हो सकता है ? हमारा चित्त दूषित होता ही है। अपने-आपको शरीर समझने से चित्त का दूषित होने शरीर का ही एक विकार है। जब आप शरीरभाव से ही मुक्त हो जाओगे , तो चित्त दूषित होने का प्रश्न ही नहीं। चित्त दूषित होता है विचारों से और व

गुरुशक्तिधाम

हम  जैसे  ही  गुरुशक्तिधाम  मॆ  प्रवेश  करते  है ,हमारा  दीमाख  काम  करना  बंद  कर  देता  है ,और  एक  शून्य  की  अवस्था  प्राप्त  हो  जाती  है ,और  शरीर  भाव  संपूर्ण  समाप्त  हो  जाता  और  आत्मभाव  स्थापित  हो  जाता  है ।और  ऐसी  स्थिति  मॆ  भी  आप  अगर  कोई  समस्या  से  ग्रस्त  हो  तो  आप  ऐसी  स्थिति  मॆ  भी  आप  आपका  चित्त  उस  समस्या  मॆ  डालकर  उस  समस्या  को  दुर  करने  की  प्रार्थना  करते  है ,और  ऐसी  शून्य  की  स्थिति  मॆ  की  गई  प्रार्थना  ही  आपकी  समस्या  को  दुर  कर  देती  है ,अब  यह  अनुभव  प्रत्येक  मनुष्य  को  आएगा ।परमात्मा  को  तो  एक  "भाव की भाषा " ही  समझती  है ।तो  सामान्य  मनुष्य  की  भी  समस्या  केवल  मंगलमुर्ति  के  दर्शन  मात्र  से  ही  दुर  होगी ।. . . ✍🏻. . . . . . पूज्य गुरुदेव ७ - ३ - २०१४ सौराष्ट्र आश्रम      

प्रकृति ही गुरु

इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आप आपकी जात छोड़ दो , आप आपकी प्रथाएँ छोड़ दो। आप आपका धर्म छोड़ दो , आप आपका खान-पान छोड़ दो। क्योंकि मेरी माँ का कहना है कि प्रत्येक स्थान का खान-पान वहाँ की भौगोलिक स्थिति के अनुसार ही होता है। ऐसा भी नहीं है कि हमें सारे गुलाब के ही फूल बगीचे में लगाने के हैं और बाकी सब फूल निकालकर फेंकना है। यानी यह ध्यान किसी जाति या धर्म के विरुद्ध नहीं है। आप स्वयं अपना एक अंतर रखो और आप स्वयं दूसरे की भी अंतर दो। जगह रखो और जगह दो। हमारी कल्पना है , संसार एक ऐसा सुंदर बगीचा हो जहाँ सारे ही फूल विकसित हों , लेकिन सभी फूलों में पर्याप्त अंतर हो ताकि फूलों को विकसित होने में पर्याप्त समय और पर्याप्त स्थान मिल सके और बगीचे में सभी फूलों को समान अवसर और समान अधिकार प्राप्त हों। कोई फूलों के बीच भेदभाव न हो , कोई बड़ा इस कोई छोटा ऐसा भेदभाव करके किसी के भी महत्त्व को कम या अधिक न नापा जाए , सब समान हों , न कोई भेदभाव हो और न कोई अन्याय हो , सभी को समान अवसर प्राप्त हो। और यह भी  संभव है कि ज प्रत्येक फूल आपने-आपको केवल फूल समझे और प्रकृति से जुड़ हुआ महसूस करे। इसीलिए हमें प्रकृ

माँ

माध्यम  हमारी  माँ  है । हमारे  लिए  क्या  अच्छा   है  और  क्या  बुरा  है , यह  हमसे  अधिक  उस  माध्यम  को  मालूम  है  तो  फिर  माँगना  क्या ?जो  है , उसमेँ  हम  खुश  है और जो  नही  है , वह  आवश्यक  भी  नही  है । और  जो  आवश्यक  नही  है , वह  माँगना  क्यों ?. . . ही.का.स.योग...5...

जंगल और वन

"कई वृक्ष मनुष्य की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं, पर पर्यावरण के संतुलन की दृष्टि से बहुत उपयोगी होते हैं।और ये वृक्ष जंगल में ही पाए जाते हैं।सब प्रकार के वृक्ष जिन्हें कोई नहीं उगाता, प्रकृति उगाती है,ऐसे जंगलों में मनुष्य को प्राकृतिक आत्म शान्ति मिलती है।प्राकृतिक रूप से बना वातावरण केवल 'जंगल' में होता है, 'वन' में नहीं ।"इस प्रकार से गुरुदेव ने 'जंगल' और 'वन' का अंतर मुझे समझाया और मुझे भी अच्छा लगा।    हि. का. स. यो.👉(1)पेज 39👉H009

सदगुरू परमात्मा के साक्षात् अवतरण

सदगुरू परमात्मा के साक्षात् अवतरण होते हैं। वे स्वाभाविक रूप में ही रहते हैं , पर वे स्वाभाविक होते नहीं हैं। सामान्य से लगते हैं,  पर सामान्य होते नहीं हैं।    उनका उनकी शक्तियों पर संपूर्ण नियंत्रण रहता है । इसलिए वे इतनी शक्तियॉ प्राप्त करके भी सामान्य मनुष्य जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। बाहर से देखने पर वे सामान्य मनुष्य ही प्रतीत होते है ।     मधुचैतन्य 2008   

अच्छे आभामंडल का प्रभाव

ये पशु-पक्षी भी उस आभामंडल का आनंद लेते है।अच्छे आभामंडल का प्रभाव सभी प्रकार के पशु-पक्षियों को आकर्षित करता है। यही कारण है कि जिस स्थान पर सुरक्षितता अनुभव होती है, पक्षी उसी स्थान पर अपने घोंसले बनाते हैं। अच्छे आभामंडल के प्रभाव में प्राणी को  सुरक्षितता अनुभव होती है और प्राणी को उस स्थान पर अच्छा लगता है,इसलिए ध्यान किसी भी स्थान पर बैठकर नहीं करना चाहिए। इसलिए सदैव सद्गुरु-सानिध्य मै ध्यान-साधना सर्वश्रेष्ठ होती हैं।     हि. का. स. यो.👉(1)पेज 41👉H011

अनुभूती

अनुभूती वह सत्य है जो माया के आवरण को तोड देता है।जिस प्रकार से कभी कभी आकाश मे धुंध रहती है,लेकीन तब तक जब तक सूर्य उदय नही होता।एक बार सूर्य उदय हो जाता है सारा अंधेरा दूर हो जाता है।ठीक इसी प्रकार से एक बार जीवन मे अनुभूती का  सूर्य उदय हो जाए तो सारी भ्रम की स्थिती दूर हो जाती है। हि स यो-3 पृ-278

अहंकार और स्वाभिमान

हमारे इस बिगड़े हुए संतुलन को भी हम कभी भी समझ नहीं पाते हैं। हम  इससे भी अपना स्वाभिमान समझ लेते हैं।वास्तव में स्वाभिमान तो वह स्तर है, जो हमें जीने की प्रेरणा और प्रोत्साहन देता है, एक नया कार्य करने का उत्साह और ऊर्जा देता है। स्वाभिमान से हम सदैव प्रसन्न और सुखी रहते हैं। और हमारे स्वाभिमान अन्य किसी मनुष्य को कष्ट या दुःख नहीं देता है, लेकिन यही स्वाभिमान जब अहंकार का रूप ले लेता है , तो उससे हमारे आसपास के लोग दुःख होते हैं। हमारे अहंकार से दूसरा को कष्ट पहुँचता है। अहंकार और स्वाभिमान में एक सूक्ष्म, पतली-सी रेखा है , हम कब स्वाभिमान से अहंकार के क्षेत्र में आ गए , हमें हमारा पता भी नहीं चलता है। भाग - ६ - ३२०/२१

गेरुए वस्त्रों से लोगों की गुणग्राहकता एकदम बठ़ जाएगी

मठाधीशजी ने कहा , हमारी भी इच्छा है, आपके हाथों से आपके गुरु का कार्य और अच्छी तरह से हो इसीलिए यह सब बातों कह रहे हैं। अगर आपने गेरुए वस्त्र पहने तो लोग प्रथम दिन से ही आपके प्रति सकारात्मक भाव रखना प्रारंभ करेंगे और शिविर का परिणाम बहुत अच्छा आएगा। आप शांति से इस बात पर सोचो ऐसी हमारी इच्छा है, क्योंकि गेरुए वस्त्रों से लोगों की गुणग्राहकता एकदम बठ़ जाएगी। बाद में मैंने सभी को नमस्कार किया और सभी से बिदाई लेकर घर की ओर चला गया। मठाधीशजी ने अपनी कार मुझे लेने और पहुँचाने के लिए देकर रखी थी बाद में जब घर पहुँचे तो रात ही हो गई। रात को भी घर जाकर नहाया और बाद में खाना खाया। हमारी खाने के बाद भी मठ के साधुओं के बारे में ही चर्चा चल रही थी । मठ के शिविर में अलग साधुओं के अलग-अगल अनुभव आए थे और इतने साधुओं के साथ शिविर लेने का मेरा यह प्रथम ही अवसर था इतना बड़ा आठ दिन का शिविर मैंने जीवन में प्रथम बार ही लिया था। आज मठ के साधुओं का शिविर लिए करीब एक माह हो गया था, लेकिन आज भी साधुओं के उस शिविर की यादें मेरे मन में थीं। एक बड़े शिविर के बाद थोड़े आराम और एकान्त की भी आवश्यकता थी। भाग - ६ -

सुबह का ध्यान हमारी आध्यात्मिक प्रगति करता है

सुबह का ध्यान हमारी आध्यात्मिक प्रगति करता है या ये समझें की सुबह ध्यान करके हम शक्तियाँ  प्राप्त करते है। और शाम को ध्यान करके हम शक्तियाँ बाँटते है। शाम का ध्यान सामूहिकता में करेंगे तो आपके माध्यम से दान होगा और जो आपके हाथ से दान होगा, आपका वही वृद्धिगत होगा। आप अगर आम के पेड़ लगाओगे तो आम ही लगेंगे। आप जो पेड़ लगाओगे वही लगेगा। ये प्रकृति का नियम है। मनुष्य जो प्राप्त करता है, वह बाँटता नही है।*    *~बाबास्वामी*

गेरुए वस्त

आपने कार्यक्रम के दौरान गेरुए वस्त्र घारण  करना चाहिए तो कार्यक्रम जैसा अनुरूप आपका वेष भी होगा और इससे आपके कार्यक्रम को एक सकारात्मक वातावरण प्राप्त होगा। मैंने कहा , मैं वैसे ही लोगों को अनुभूति से बोलकर प्रभावित कर ही लेता हूँ, तो फिर अलग से गेरुए वस्त्र पहनने की क्या आवश्यकता है ? दूसरा , सदैव मुझे लगता है कि सभी साधक मुझे अपने जैसा ही समझें , तभी तो वे भी मेरे जैसा बनने का प्रयास कर सकते हैं। जैसे एक छोटे बच्चे के सामने मैं अगर दो स्टेप (पादानें ) चढकर बैठूँ और उसे मेरा जैसा ऊपर आने के लिए प्रेरित करूँ तो वह प्रेरित होगा और दो स्टेप चढ़ने का प्रयास करेगा क्योंकि मैं उसे करीब का लगूँगा और वह चढ़गा लेकिन अगर उसी छोटे बच्चे के सामने मैं २० ,स्टेप ऊपर जाकर बैठूँ और उसे अपनी ओर आमंत्रित करूँ तो वह सोचेगा , मैं तो इतना ऊँचा नहीं चढ़ सकता और वह एक स्टेप भी नहीं चढ़गा। मेरी मन से इच्छा यही है कि साधक यह ध्यान की पद्धति सीखें। और साधक यह ध्यान की पद्धति तभी सीखेंगे , जब उन्हें यह सरल लगेगी। मेरा ध्यान का शिविर लेने का उदेश लोगों को प्रभावित करना नहीं है और न ही मैं चाहता हूँ, लोग मुझे एकदम वि

श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण भगवान उस काल के गुरु थे। वे अपने जीवनकाल में भी पहचाने नहीं गए। बहुत कम लोग उनके जीवनकाल में उनको पहचान पाए थे। किसी ने उन्हें माखनचोर कहा , किसी ने ग्वाला कहा क्योंकि उस काल में भी बहुत कम लोग वर्तमान काल में थे। इसलिए , वर्तमान में ही न हो , तो परमात्मा के वर्तमान स्वरूप को कैसे पहचानेंगे? इसलिए उन्हें भी नहीं जान पाए। वे भी उनके काल के गुरु ही थे। उनके माध्यम से परमात्मा की शक्ति बहती थी। वे भी माध्यम ही हैं , यह वे भी जानते थे , इसलिए उन्होंने कभी अपने-आपको भगवान नहीं कहा। हाँ, गीता वेदव्यासजी ने लिखी है जिसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं भगवान हूँ , पर वास्तव में , वह श्री वेदव्यासजी का भाव था। धीरे-धीरे श्रीकृष्णजी को मान्यता भगवान के रूप में मिलने लगी और वे भगवान माने गए , पर तब समय बित चुका था। परमात्मा के माध्यम , जो मान्यताप्राप्त होते हैं, उन्हें पहचानना आसान होता है क्योंकि सभी लोग उन्हें जानते हैं। पर वे अपने से तो दूर ही होते हैं। पर ऐसे किसी एक 'भगवान' की भक्ति करके भी भगवान के वर्तमान काल के स्वरूप (माध्यम) तक पहुँचा जा सकता है। *हिमालय का समर्पण

*प्रश्न: स्वामीजी, सर्वोत्तम विडीओ शिबिर कैसे होगा? हम कैसे जाने कि शिबिर सफल हुआ है या नहीं?*

*प्रश्न: स्वामीजी, सर्वोत्तम विडीओ शिबिर कैसे होगा? हम कैसे जाने कि शिबिर सफल हुआ है या नहीं?* *स्वामीजी:* सर्व प्रथम जो लोग विडीओ शिबिर आयोजित कर रहे हैं , उन्होंने नियमित ध्यान करना चाहिए। उनकी स्थिति अच्छी होना चाहिए। उनकी स्थिति अच्छी होगी , वो अच्छे माध्यम होंगे। अच्छे माध्यम होंगे , अच्छा शिबिर होगा। तो सबकुछ उन्हीं के ऊपर डिपेन्ड(निर्भर) है। तो रेग्युलरली(नियमित) पहले वो ध्यान करके अपनी स्थिति इंप्रूव करें(सुधारें), स्थिति अच्छी बनाएँ उसके बाद में शिबिर करें। दुसरा , शिबिर के अंदर संख्या महत्वपूर्ण नहीं है। कितने लोगों ने भाग लिया , कितने लोग आये , वो महत्वपूर्ण नहीं है। कितने लोग बादमें जुड़े रहे , कितने लोग रेग्युलर रहे , कितने लोग नियमित रहे , कितनी सामूहिकता बढ़ी , वो महत्वपूर्ण है। खूब सारे लोग आए और उसके बाद में कुछ भी लोग नहीं जुड़े तो वो शिबिर सफल शिबिर नहीं है। या थोडे से लोग लेकिन उनमें से अधिकतर लोग जुड़ तो वो सफल शिबिर है। तो , उसके बाद में  कितने लोग जुड़ते हैं न , कितने लोग नियमित होते हैं , कितने लोग नहीं होते हैं , इसके ऊपर भी सफल या असफलता शिबिर की निर्भर होती है

सभी स्थान ध्यान करने के योग्य नहीं होते

साधक को ध्यान-साधना करते समय स्थान का सदैव 'ध्यान' रखना चाहिए। सभी स्थान ध्यान करने के योग्य नहीं होते हैं। कई स्थानों पर  बैठकर किया गया 'ध्यान' साधक के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता हैं।         "बुरे कर्म मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए करता है, पर बुरे कर्म के कारण वह मनुष्य तो बुरा बनता ही है, वह उस स्थान को भी बुरा कर देता है जिस स्थान पर बैठकर उसने वह बुरा कार्य किया है।तो उस निश्चित स्थान पर उस बुरे कार्य का प्रभाव बन जाता है। और ठीक उसी स्थान के ऊपर, आकाश में उस ख़राब कार्य का आभामंडल तैयार हो जाता है।"         "जब कोई अच्छा व्यक्ति भी उस स्थान पर पहुँचता है, तो स्थान का ख़राब प्रभाव और उसी स्थान के खराब आभामंडल से वह अच्छा व्यक्ति भी आहत होता है।इसलिए सभी स्थान ध्यानकरने योग्य नहीं होतें हैं ।"     🌸🌸🌸🙏🌸🌸🌸 हि. का. स. यो.👉(1)पेज 40👉H010

आपका माल तो अच्छा है, श्रेष्ठ है लेकिन आपका पॅकिंग खराब है।

मठाधीशजी ने कहा , हमने सबने मिलकर कल रात को भी आपके ऊपर चर्चा की थी। शिविर पर भी चर्चा की थी , अनुभूति पर भी चर्चा की थी। सभी लोग आपको तो बोलने में संकोच करते हैं लेकिन हम सभी एक निर्णय पर पहुँचे हैं कि आपका माल तो अच्छा है,  श्रेष्ठ है लेकिन आपका पॅकिंग खराब है। मुझे कुछ भी समझा नहीं कि वे क्या कह रहे हैं और क्यों कह रहे हैं। मैंने बात स्पष्ट समझने के लिए कहा, आप क्या कहना चाह रहे हैं, में कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। उन्होंने कहा, आपके विचार अच्छे हैं , आपकी साधना भी अच्छी हुई है। ध्यान में कुछ साधक अटक गए थे , तो आपने बड़ी ही आसानी से उन्हें बाहर निकाला , उनके ब्लॉक ( रुकावट )को दूर किया और इससे हमने यह जान की कुण्डलिनी योग के ऊपर अच्छा अभ्यास है और प्रभुत्व है। आप चक्रों  के भी अच्छे ज्ञाता हैं , चक्रों के विषय में भी आपका गहरा अध्ययन है। हिमालय के आपके गुरुओं ने आभामण्डल का भी आपका अच्छा अध्ययन करवाया है और यह सब ज्ञान एक मनुष्य तो तभी हो सकता है , जब वह एक अच्छी पवित्र और शुद्ध आत्मा हो। आप एक पवित्र आत्मा हैं और उस आत्मा का प्रभाव तो हमें आपके सान्निध्य में महसूस होता है। इतने कठीन क