प्रकृति ही गुरु

इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आप आपकी जात छोड़ दो , आप आपकी प्रथाएँ छोड़ दो। आप आपका धर्म छोड़ दो , आप आपका खान-पान छोड़ दो। क्योंकि मेरी माँ का कहना है कि प्रत्येक स्थान का खान-पान वहाँ की भौगोलिक स्थिति के अनुसार ही होता है। ऐसा भी नहीं है कि हमें सारे गुलाब के ही फूल बगीचे में लगाने के हैं और बाकी सब फूल निकालकर फेंकना है। यानी यह ध्यान किसी जाति या धर्म के विरुद्ध नहीं है। आप स्वयं अपना एक अंतर रखो और आप स्वयं दूसरे की भी अंतर दो। जगह रखो और जगह दो। हमारी कल्पना है , संसार एक ऐसा सुंदर बगीचा हो जहाँ सारे ही फूल विकसित हों , लेकिन सभी फूलों में पर्याप्त अंतर हो ताकि फूलों को विकसित होने में पर्याप्त समय और पर्याप्त स्थान मिल सके और बगीचे में सभी फूलों को समान अवसर और समान अधिकार प्राप्त हों। कोई फूलों के बीच भेदभाव न हो , कोई बड़ा इस कोई छोटा ऐसा भेदभाव करके किसी के भी महत्त्व को कम या अधिक न नापा जाए , सब समान हों , न कोई भेदभाव हो और न कोई अन्याय हो , सभी को समान अवसर प्राप्त हो। और यह भी  संभव है कि ज प्रत्येक फूल आपने-आपको केवल फूल समझे और प्रकृति से जुड़ हुआ महसूस करे। इसीलिए हमें प्रकृति को ही गुरु मान लेना चाहिए , वही आदर्श होना चाहिए। हम सदैव उसी का अनुकरण करें तो भी बहुत-सी बातें सीख सकते हैं।

भाग - 6 -२७५/२७६

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