हिंदू संस्कृति
धर्म की एक सीमा होती है। हिंदू धर्म की कोई सीमा नहीं है। यह इसलिए है कि हिंदू (हिंदुत्व) धर्म नहीं है , हिंदू संस्कृति है जो प्रकृति के साथ जुड़ी हुई है। यह भारतीय संस्कृति है जिसमें अनेक देवता हैं , अनेक गुरु हैं , ध्यान की अनेक पद्धतियाँ हैं , योगासन है , प्राणायाम है , ध्यान है , शास्त्रीय संगीत है , वादन है , नृत्य है , शास्त्र है , पशु देवता है , वृक्ष देवता है , नदी देवता है , समुद्र देवता है , सूर्य देवता है , चंद्र देवता है। ये सभी तो प्रकृति से जुड़े है। इसलिए हिंदू संस्कृति को हिंदू धर्म के दायरे में बाँधा नहीं जा सकता।
इस संस्कृति में तो प्रत्येक मनुष्यमात्र का विचार किया गया है। सारे विश्व के प्राणीमात्र के लिए सोचा गया है। और धर्म कहलाने के लिए इसके पास न कोई एक देवता है और न एक निश्चित ग्रंथ। कोई भी निश्चित सीमा नहीं है। यह तो खुली किताब है जो आदिकाल से लिखी जा रही है और आज तक बंद नहीं हुई है। *आज भी कोई गुरु आकर अपनी चार बातें उसमें जोड सकता हैं।*
इसमें पुजा के माध्यम से प्रकृति के साथ जुडना सिखाया जाता है। पर्वत की पूजा , नदी की पूजा , पेड़ की पूजा , चंद्र की पूजा , सूर्य की पूजा , साप की पूजा , गाय की पूजा , बंदर की पूजा , वगैरह-वगैरह। यानि "सर्वत्र परमात्मा है," यह बताने का उद्देश्य है। लेकिन *लोग पूजा और कर्मकांड को पकडकर बैठ गए तो यह लोगों का दोष है, पूजा पद्धति का नहीं।*
पूजा यानि किसी एक माध्यम पर चित्त एकत्र करके बादमें भीतर की यात्रा करना है। अंतिम उद्देश्य आत्मधर्म जागृत करना ही है। पूजा भी क्रमबद्ध तरीके से , लयबद्ध तरीके से मन की एकाग्रता करने का माध्यम हैं। मुख्य उद्देश्य मन की एकाग्रता ही है। पूजा सशक्त माध्यम है मन की एकाग्रता का।
*हिमालय का समर्पण योग २/५६*
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