आत्मसुख की खोज
*॥जय बाबा स्वामी॥*
सबसे नीचले स्तर पर शारीरिक सुख होता है जो हमें आराम के साधनों से , सुविधाओं से प्राप्त होता है। और धीरे-धीरे हम उसके अभ्यस्त हो जाते हैं और शारीरिक सुख-सुविधाओं को सुख मान लेते हैं। लेकिन इन सुख-सुविधाओं की एक सीमा है। एक सीमा तक वे आराम या सुख दे सकती हैं। पर बाद में पता चलता हैं कि ये सब सुख देनेवाली सुविधाएँ हैं , ये सब साधन हैं ; ये सुख नहीं हैं , इनमें सुख नहीं है। हम मान लेते हैं कि इन सुविधाओं में सुख है। वास्तव में , हमारी गलत धारणा के कारण हमें ऐसा लगता है। पर एक चरमसीमा के बाद यह धारणा भी टूट जाती है। और फिर वह धनी व्यक्ति सब सुख-सुविधाओं को त्यागकर शाश्वत सुख की तलाश में निकल पडता है क्योंकि वह जान जाता है -जिसे मैं सुख समझ रहा था , वो तो केवल सुविधाएँ थीं जो शरीर को आराम दे रही थीं , पर वास्तव में , यह सुख सुख नहीं था क्योंकि यहाँ पर समाधान नहीं था।
फिर मनुष्य वहाँ से आगे बढ़ जाता है। फिर अहंकार आडे आता है। वह बुद्धि के स्तर पर सुख को जानने का प्रयास करता है। पुस्तकों को पढ़कर , प्रवचनों व सत्संग में जाकर ज्ञानप्राप्ति कर सुख को भी जानने का प्रयास करता है। वास्तव में , सुख यानि क्या , यह आत्मसुख की खोज ही फिर उसे किसी जीवंत (सजीव) गुरु के सान्निध्य में ले जाती है। और फिर उसके सान्निध्य में जब अनुभूती होती है , तब ही वह जान पाता है कि आत्मसुख क्या है। और फिर बुद्धि भी गिर जाती है और वह परमसुख को प्राप्त हो जाता है।
*हि.का स.यो.२/९७*
*॥आत्म देवो भव:॥*
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