कर्म
कर्म आत्मा को जीवन-मृत्यु के कालचक्र से मुक्त होने नही देते । अर्थात सत्कर्मौ से सुख के उपभोग तथा दूश्क्रूत्य से उसके दुष्परिणाम भोगने के लिए आत्मा बार-बार जन्म लेने को बाध्य होती है । आत्मा के सत्कर्मौ के कारण ही उसे जिवंत सदगुरु का सानिध्य प्राप्त होता है । साधक सदगुरु को अपने सभी कर्म समर्पित कर शुद्ध एवं पवित्र हो जाता है । तब जैसे एक बुझा हुआ दीपक प्रज्वलित दीपक की ज्योती के सानिध्य में प्रज्वलित हो जाता है , वैसे ही आत्मसाक्षातकारी गुरु की अमृत वाणी सुन उसकी कृपा दृष्टि से ये पवित्र आत्मा आत्मसाक्षातकार प्राप्त करती है ।
इस प्रकार गुरु शिष्य के कर्म-पाश , कर्म-बंधन तोडता है तथा उसे मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करता है । इसीलिए शिष्य गुरु का दिव्य प्रकाश सर्वत्र अनुभव करता है ।
- वंदनिय गुरुमाँ
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