आध्यात्मिक ज्ञान से प्राप्त हुई ऊर्जा
मैं तुझे सत्य धटना बताता हूँ। उत्तरखंड के एक रामपाल राजा की कहानी मेरे गुरु ने बताई थी। वह अतिप्राराक्रमी, अतिबलशाली राजा था। जीवन में आनेवाली समस्या का जब कोई निदान नहीं मिलता , तब वह श्री मैत्री ऋषि के आश्रम में पहुँच जाता था। कुछ दिन उनके सान्निध्य में रहता और कुछ दिनों के बाद वापस जाकर अपना राज्य-कारभार चलाता था। पहली बार वह तब गया था, जब वह युद्ध में हार गया था। दूसरी बार वह अपनी पत्नी से झगड़ा होने पर आश्रम में, गुरुसन्निध्य में गया। तीसरी बार एक गृहयुद्ध के भय से गुरु के सान्निध्य में गया। और चौथी बार , पुत्री की मृत्यु हो जाने पर गुरुसन्निध्य में गया और अपने मन को शांत किया। वह अपनी लड़की से बहुत अधिक प्रेम करता था और उसके बिना वह जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता था। इसलिए उसकी लड़की की मृत्यु से थोड़े समय के लिए उसके मन में वैराग्य की भावना जागी थी, पर वह क्षणिक ही थी। थोड़े समय बाद वह अपने लड़के के व्यवहार से दुःखी होकर फिर से गुरुसन्निध्य में गया। प्रत्येक बार श्री मैत्री ऋषि उसके दुःखों को छोड़कर आध्यात्मिक चर्चा ही उससे करते थे। यह राजा उनके प्रवचन जब आश्रम के अन्य शिष्यों के साथ सुनता , तो उसे आत्माशांति मिलती थी। फिर कुछ दिन आश्रम में रहा और वापस अपनी दुनिया में चला गया। कुछ समय के बाद राजा की रानी की मृत्यु हो गई और फिर राजा एकदम टूट गया और फिर से आश्रम में श्री मैत्री ऋषि के पास गया।
तब प्रथम बार श्री मैत्री ऋषि ने उससे कहा- यह सारा संसार ही नश्वर है और इस नश्वर संसार में ही तेरा चित्त सदा रहता था। तू आता तो आश्रम में था, पर केवल शरीर से यहाँ रहता था ; तेरा चित्त तो उस नश्वर संसार में ही लगा रहता था। तेरी दिशा भी गलत थी और मार्ग भी गलत था। तू यहाँ आकर जो ऊर्जा प्राप्त करता था, उस ऊर्जा को , राज्य और अधिक कैसे बढे़ , इस पर खर्च करता था। इसलिए तेरे पास तो कुछ बाकी रहता ही नहीं था। यह तो आध्यात्मिक उर्जाशक्तियों का दुरुपयोग है। तू मेरे आश्रम में तभी आता है , जब तू अपनी दुनिया में दुःखी होता है या परेशानी से धीरा होता है। और जैसे ही परेशानी दूर होती है , तू फिर से उधर ही भागता है। इस बार के अनुभव से भी तू यह नहीं सीखा कि अगर थोड़े-से सान्निध्य से परेशानियाँ दूर हो सकती हैं, तो अगर जीवनभर तू गुरुसन्निध्य में रहा , तो प्रेशनिमुक्त , संकटमुक्त जीवन तुझे प्राप्त हो सकता है। लेकिन यह समझ तुझे तब तक प्राप्त नहीं होगी, जब तक तेरे पिछले जन्म के कर्म नष्ट नहीं होंगे। यह सब कर्मों का ही मायाजाल है।आज तेरे पूर्वजन्म के कर्म संपूर्ण रूप से नष्ट हो गए हैं। आज तू कर्ममुक्त हो गया है। अब तू अपने संसार में वापस जा सकता है और अपना राज्य चला सकता है। राजा रामपाल ने श्री मैत्री ऋषि के पैर पकड़ लिया और कहा : गुरुदेव , गत जन्म के कर्मों के दलदल से निकलने में मुझे इतने साल गले हैं, अब वापस उस कर्मों के दलदल में मुझे नहीं जाना है। और अब न ही कोई अच्छे कर्म करने हैं। क्योंकि अच्छे कर्म करुँगा , तो भी उन्हें भोगने मुझे इस जगत् में वापस आना होगा। मुझे बस् अपने शिष्यों में शामिल कर लीजिए। मैं अब राजा बनकर नहीं , केवल शिष्य बनकर रहना चाहता हूँ। गुरु ने उसे उठाकर गले लगा लिया और कहा - तू गए जन्म में मेरा प्रिय शिष्य था और इसी के कारण तू हर बार , प्रत्येक परेशानी में मेरे ही पास आता था। पर इस जन्म के कर्मों को भोगने की लालसा और अतृप्ति तुझे बार-बार वापस अपने राज्य में ले जाती थी। मैं जानता था कि सारे कर्म नष्ट हो जाने पर तु वापस आएगा। आध्यात्मिक ज्ञान जीवन की प्रत्येक समस्या का संपूर्ण निदान है, स्थाई निदान है। बस् हमने उसे स्थाई समझना चाहिए। हम हमारी , दैनिक जीवन की समस्याओं में इतने लिप्त रहते है कि उन समस्याओं को ही हम स्थाई समझ लेते हैं। और उस आध्यात्मिक ज्ञान से प्राप्त हुई ऊर्जा को हम उन समस्याओं पर खर्च कर देते हैं उस प्राप्त हुई ऊर्जा को अपने पास नहीं रखते है।
हिमालय का समर्पण योग भाग - ३
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