श्री शिवकृपानंद स्वामी
"हिमालय में मेरे गुरुओं ने 'आध्यात्मिक ज्ञान' तो प्राप्त कर लिया, पर बाँटने के लिए उनके पास कोई भी नहीं था | वे समाज में आ नहीं सकते थे और समाज उन तक जा नहीं सकता था | इसलिए आत्मज्ञान बाँटने के लिए उन्होंने मेरे शरीर को ही 'माध्यम' बनाया और 'माध्यम' के रुप में 'अधिकृत' किया | क्योंकि आत्मज्ञान की धरोहर किसी को सौंपे बिना उन्हें भी 'मुक्ति' संभव नहीं थी | आप स्वयं ही सोचो न, एक शरीर से इतना चैतन्य का प्रभाव कैसे अनुभव हो सकता है ? वास्तव में, इसमें इस शरीर का 'अपना' कुछ भी नहीं है | शरीर तो केवल एक 'पाइप' के समान ही है | यह शरीर वैसे तो सामान्य सा ही है, पर असामान्य हिमालय के तपस्वियों की, मुनियों की, कैवल्य कुंभक योगियों की एक बड़ी सामूहिकता इस शरीर के साथ प्रत्येक क्षण होती ही है | 'श्री शिवकृपानंद स्वामी' किसी एक व्यक्ति नाम नहीं है | उन सद्गुरुओं की सामूहिकता का नाम है | इसीलिए इस नाम में ही चैतन्य का प्रवाह आपको महसूस होता है |"
('आत्मेश्वर', बारहवें अनुष्ठान के संदेश, पेज 79)
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