गुरुसान्निध्य

गुरुसान्निध्य का अधिक समय पूर्वजन्म के बुरे कर्मों को नष्ट करने में ही जाता है। और जैसे ही बुरे कर्म नष्ट होते हैं , शरीर नए कर्मों के जाल में उलझ जाता है और गुरुसन्निध्य छूट जाता है। और आध्यात्मिक प्रगति तो बाद का ज्ञान है। यह ठीक वैसा ही है कि एक गलत दिशा में गलत उदेश लेकर एक मनुष्य दौड़ता है और अपने गलत दौड़ने से गिर पड़ता है। उसके पैर में चोट लग जाती है। और अब दौड़ नहीं सकता , इसल पड़ा हुआ है। और पैर में तकलीफ है , इसलिए डॉक्टररूपी ( वेद्यरुपी ) गुरु के पास आता है। अपने जख्म पर पट्टी बंँघवाता है , दवा-दारु करवाता है और अपने जख्म ठीक करवाता है। और वह दौड़ नहीं सकता , इसलिए डॉक्टररूपी गुरु के पास होता है , पर उसका चित्त तो अभी भी उसी दिशा में होता है। वह केवल शरीर से गुरु के पास होता है। और जिस दिन वह मनुष्य स्वस्थ होता है , वह गुरुसन्निध्य को छोड़कर फिर से गलत दिशा में , गलत मार्ग से दौड़ना प्रारंभ कर देता है। यानी वह मनुष्य गुरुसन्निध्य में केवल स्वस्थ होने के लिए आया था। आध्यात्मिक रुप से कभी जुड़ा ही नहीं है, तो वह आध्यात्मिक ज्ञान कैसे पाएगा ?

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