आध्यात्मिक प्रगति की पाँच पादाने

चौथी पादान :

जीवंत सद्गुरु को मानना। यह सबसे आसान और सबसे कठिन कार्य है।
सबसे आसान इसलिए है क्योंकि परमात्मा के इस माध्यम के पास आसानी से पहुँचा जा सकता है। क्योंकि यह माध्यम शिष्य के जीवनकाल में जीवंत रूप से उपस्थित होता है।
एक मनुष्य जो अपने ही जैसा दिखता है , अपने ही जैसे हाव-भाव करता है , अपने ही जैसे सामान्य व्यवहार करता है , उसे परमात्मा मानना बडा कठिन मालूम होता है। ऐसा इस कारण होता है कि हमने सदियों से यह मान रखा है कि परमात्मा यानि वह जो वर्तमान में नहीं है , भूतकाल में ही है। यह केवल हमने मानकर रखा है जबकि वर्तमान में तो होता ही है।
जीवंत गुरु की सामूहिक शक्तियाँ होती हैं। क्योंकि जिन लोगों का समर्पण उसके प्रति हुआ है या जिसे वह समर्पित हुआ है , उन शुद्ध आत्माओं की सामूहिकता की एक बड़ी शक्ति उसके साथ सदैव होती ही है। इस प्रकार जीवंत सद्गुरु से जुड़कर , वास्तव में , हम जीवंत शक्तियों के साथ जुड़ जाएँगे।
जीवंत गुरु तक पहुँचना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जीवंत गुरु ही जीवंत अनुभूति करा सकता है। परमात्मा की अनुभूति कराने के लिए जीवंत सद्गुरु चाहिए और जीवंत अनुभूति लेने के लिए हम भी जीवंत होने चाहिए। देनेवाला व लेनेवाला दोनों ही जीवंत होने चाहिए क्योंकि अनुभुति एक जीवंत प्रक्रिया है।
*हिमालय का समर्पण योग ३*
*॥आत्म देवो भव:॥*
*॥जय बाबा स्वामी॥*
आपके भीतर का 'मैं' जब तक जीवित है, तब तक ध्यान कभी भी नही लग सकता। *'मेरा'* ध्यान लग रहा है। *'मेरा'* ध्यान नही लग रहा है.... *'मुझे'* ध्यान की अवस्था  प्राप्त हुई है ... *मुझे* ध्यान की अच्छी अवस्था प्राप्त नही हुई है...अरे,  यह *'मैं'* कौन है ? इस *'मैं'* को छोड़ दो ।  विलीन कर दो। अच्छा हो रहा है, स्वामीजी की कृपा। अच्छा नही हो रहा है , स्वामीजी की कृपा। अपनी ईच्छा को ही मत बाँधो।
"स्वामीजी मुझे अच्छा ध्यान लगाओ।" क्यूँ लगाऊ ? जब तेरी स्थिती अच्छी हो जाएगी, माँगने की भी आवश्यकता नही होगी !  ध्यान कब लग गया, पता ही नही चलेगा। उसके लिये सुपात्र बनो। भीतर भूतकाल का जहर भरकर रखा हुआ है। रोज ध्यान करते हो, ग्रहण करते हो, जहर मे डालते हो ! वह भँवरा बेकार मे मेरा अमृत खराब कर रहा है। तो सबसे पहले जहर को निकाल कर फेको। ताकी मैं आपको उज्ज्वल भविष्य दे सकुँ।

मधुचैतन्य जुलाई - 2005

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