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Showing posts from August, 2018

कोई भी अपेक्षा मत करो।

कोई भी अपेक्षा मत करो।आप मेरे जीवन का उदाहरण देखो। मैंने जीवन में कुछ भी अपेक्षा नहीं की। आज जीवन के उस मुकाम में पहुँचा हूँ जहाँ जीवन में पाने के लिए कुछ भी नहीं रहा। कुछ भी पाने की इच्छा नहीं है। सब हो गया। सब तृप्त हो गया, सब मिल गया। तो ऐसी स्थिति प्रत्येक साधक को मिले , मेरी इच्छा है। प्रत्येक साधक जीवन के उस स्थिति तक पहुँचे जहाँ जीवन में पाने के लिए कुछ भी बाकी ही न रह जाए। कुछ भी नहीं चाहिए। कुछ नहीं चाहिए। ऐसी स्थिति प्रत्येक साधक को प्राप्त होनी चाहिए। और ऐसी स्थिति प्रत्येक साधक को प्राप्त हो ये मेरी शुद्ध इच्छा है। लेकिन ये शुद्ध इच्छा रखके तब तक वो पूर्ण नहीं होगी जब तक आप अपेक्षा  छोड़करके ध्यान नहीं करोगे। आप न, तुरंत अपेक्षा को जोड़ लेते है। अपेक्षा के लिए ही ध्यान करते हो। अपेक्षा छोड़करके ध्यान करो न ! तो वो वास्तव में ध्यान होगा। उसको छोड़करके करो। मधुचैतन्य - अंक : ३ -२०१८

पति औऱ पत्नी गृहस्थी रूपी रथ के दो पहिए

* मेरे  विचार  में  पति  औऱ  पत्नी  गृहस्थी  रूपी  रथ  के  दो  पहिए  होते  हैं । दोनों  की  आपसी  समझ  से  किए  गए  प्रयास  वे  अश्व  हैं  जो  रथ  को  आगे  बढ़ाते  हैं । कौन -सा  पहिया  क्या  कार्य  करें , य़ह  उन  दोनों  की  आपसी  समझ  पर  आधारित  होता  हैं । पति -पत्नी  का  आपसी सामंजस्य  जितना  अच्छा  होगा , रथ  उतना  ही  सुचारू  रूप  से  आगे  बढ़ेगा । गृहस्थी  में  कार्य  का  विभाजन  भी  महत्वपूर्ण  होता  हैं । य़ह  संतुलित  हो  तो  सुख - संतोष  के  वातावरण  से  परिवार  विकास  के  पथ  पर  अग्रसर  होता  हैं । यदि  कार्य  विभाजन  असंतुलित  हो  तो  किसी  एक  के  मन  में  असंतोष  की  भावना  जगाएगा । पति -पत्नी  एक  दूसरे  से  संतुष्ट  हों  य़ह  महत्वपूर्ण  हैं । * *🌳परमवंदनीय पूज्या गुरुमाँ *🔰:--संदर्भ --: " माँ "पुष्प - १*

नियमित ध्यान की क्या आवश्यक है ?

नियमित ध्यान इसलिए आवश्यक है ..  देखो , रोज हम वातावरण में धूमते हैं  तो हमारे कपड़े गंदे होते हैं , हम गंदे होते हैं। हम नहाते हैं , स्वच्छ होते हैं , पवित्र होते हैं। तो शरीर को स्वच्छ करने तो हमने सीख लिया। आत्मा को कौन पवित्र करेगा ?  आत्मा को कौन शुद्ध करेगा ? तो आत्मा को भी पवित्र करना जरुरी है। आत्मस को भी शुद्ध करना आवश्यक है। वो शुद्ध करना ही ध्यान है। ध्यान के माध्यम से वो सब हो सकता है  मधुचैतन्य - २०१८

ध्यानमार्ग

*ध्यानमार्ग  में  जब  भीतर  से  ही  आत्मसूख  मिलने  लग  जाता  हैं  तो  हम  प्रत्येक  परिस्थिति  को  हँसते -हँसते  स्वीकार  कर  लेते  हैं । हम  सबमें  राजी  हो  जाते  हैं , यह  बात  भी  समाज  को  स्वीकार  नहीं  होती । समाज  सोचता  हैं --हम  सूखी  नहीं  हैं  तो  य़ह  कैसे  सदैव  सूखी  औऱ  प्रसन्न  रहता  हैं ? ध्यानमार्ग  में , भीतर  में  ही  परमात्मा  को  पा  लिया , य़ह  अनुभव  होता  हैं  तो  बाहर  की  परमात्मा  की  खोज  भी  बंद  हो  जाती  हैं । समाज  तो  बाहर  के  परमात्मा  को  ही  मानता  हैं , वह  तो  बाहर  ही  अलग -अलग   स्थानों  पर  भटकते  रहता  हैं । पूज्य गुरुदेव ** *🌹आशीर्वचन 🌹*

नकारात्मक शक्तियों का मुख्य 'उद्देश'

🌿🌹|| जय बाबा स्वामी ||🌹🌿 "नकारात्मक शक्तियों का मुख्य 'उद्देश'  आपको सामूहिकता से 'अलग' करना है | ताकि वह आपका शिकार आसानी से कर सके | यह बिलकुल जंगल जैसा है | जंगल में शेर जब भी किसी हिरन का शिकार करता है तो वह प्रथम हिरन जो कमजोर है, दौड़ नहीं सकता ऐसे ही हिरन को खोजता है | मेरे 'अहंकारी साधक' भी ऐसे ही कमजोर हिरन हैं जो अपने अहंकार के कारण, जो बताया है, उससे कुछ अलग करने जाते हैं और फिर सामूहिकता से अलग हो जाते हैं और नकारात्मक शक्ति रुपी 'शेर' के आसान शिकार हो जाते हैं |" ('आत्मेश्वर', बारहवें अनुष्ठान के संदेश, पेज 16)

निसर्ग से समरस हो जाने के बाद

निसर्ग से समरस हो जाने के बाद मनुष्य में निसर्ग के 'गुण' आना प्रारंभ हो जाता है। निसर्ग का *पहला गुण* है - 'निर्विचारिता'। मनुष्य जैसे जैसे निसर्ग से समरस होता है , वैसे वैसे निसर्ग मनुष्य के शरीर का विचार रूपी कचरा बोले या गंदगी बोले , निसर्ग पहले दूर करता है। निसर्ग का *दूसरा* गुण है - 'समानता'। निसर्ग किसी के साथ भी भेदभाव नहीं करता है। निसर्ग मनुष्य को केवल मनुष्य ही मानता है ; जाति , धर्म , देश , भाषा , लिंग ये सब मनुष्य के बनाए हुए बँटवारे को निसर्ग नही समझता। निसर्ग का *तिसरा गुण*है - अपनी एक निश्चित सीमा में ही रहना। निसर्ग का *चौथा गुण* है- शक्तियों का विकेंद्रीकरण। निसर्ग के पास जो भी शक्तीयाँ विद्यमान होती हैं , निसर्ग सदैव वह बाँटते रहता है; शक्तीयाँ अपने पास नही रखता है। *आत्मेश्वर(आत्मा ही ईश्वर है)* *॥ बाबा स्वामी॥*

मेरा , मैं का भाव रहेगा , उतनी ही समस्याएं मेरी रहेगी ।

        आज  तक  सदैव  ईश्वर  ने , गुरुशक्तियों  ने  मुझे  संभाला  हैं  औऱ  आगे  भी  वे  देखेगी .....वे  ही  सँभालेँगि ! जितना  "मेरा ", " मैं " का  भाव  रहेगा , उतनी  ही  समस्याएं  मेरी   रहेगी । आज  ध्यान  के  पष्च्यात  स्वर्णिम  किरणों  का  छाता -सा  दिखा  था । वह  स्वर्णिम  छाता  दिखे  अथवा  न  दिखे , सदा  से  ही  गुरुशक्तियों  ने  संभाला  हैं , राह  दिखाई  हैं । .........* *परम वंदनीय गुरु माँ *अंश --" माँ " पुष्प -२*

मूर्ति में प्राण

अब बाद में उस मूर्ति को जो मूर्तिकार निर्मित करे वह मूर्तिकार भी आत्मसाक्षात्कारी होना चाहिए। यानी बनाने वाला मनुष्य भी आत्मज्ञानी होना चाहिए। वह चैतन्य पूर्ण होगा तो ही वह मूर्ति को कलात्मक, सही रूप प्रदान कर सकता है। यह भी उतना आवश्यक होता है और इसके बाद होता है ऐसा अधिकारी पुरूष जो मूर्ति में प्राण डाल सके। अर्थात मूर्तिकार मूर्ति को रूप प्रदान करता है तथा अधिकार पुरूष उसे चैतन्य स्वरूप प्रदान करता है। लेकिन अब ऐसे प्राणवान माध्यम ही कम रह गए हैं, जो मूर्ति में प्राण डाल सकें। भाग - ६ -३००

प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा

दूसरा , यहाँ एक बात समझने की आवश्यकता है। जो भी प्राण डालेगा, वह उस देवता के प्राण नहीं   डाल सकता है। यानी मान लो , एक कृष्ण की प्रतिमा है और उस प्रतिमा में एक संत ने प्राणशक्ति डाली तो वह अपनी प्राणशक्ति डालेगा , वह कृष्ण भगवान की प्राणशक्ति नहीं डाल सकता है। और फिर असमानता तो हो ही गई , रूप तो कृष्ण का और भीतर प्राणशक्ति उस संत की होगी । हमारे यहाँ गुरु को उनके समाधिस्थ होने के बाद ही जाना जाता है, क्योंकि हम सदैव भूतकाल में ही जीते हैं। गौतम बुद्ध ने अपने जीवनकाल में मूर्तिपूजा का विरोध किया तो भी आज विश्व में सबसे अधिक प्रतिमाएँ गौतम बुद्ध की हैं। यह कितना बड़ा विरिधाभास है! अब मान लो , गौतम बुद्ध ने अपने जीवनकाल में अपनी ही एक प्रतिमा बनाई होती और अपने ही प्राण उसमें डाले होते तो वह प्रतिमा आज दुर्लभ ही होती। क्योंकि गौतम बुद्ध का ही रूप और गौतम बुद्ध का ही भीतर का स्वरूप होगा। यानी प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा करने वाले भी अधिकारी मनुष्य होना चाहिए तभी वह मूर्ति में प्राण डाल सकेगा।। भाग - ६ - ३००/ १

सदैव सकारात्मक विचार करो

अगर मान लो , आप सदैव सकारात्मक विचार करो कि मेरी दुर्धटना ही कभी नहीं हो सकती है, तो आपका विचार आपके विश्वास में बदल जाएगा। और फिर उस विश्वास से एक आपके आसपास आभामण्डल बन जाएगा और आपकी कभी भी दुर्धटना नहीं होगी। अब मैं भी अगल-अलग वाहनों से प्रवास करता हूँ , कभी बस से भी  प्रवास करता हूँ  लेकिन मेरी कभी दुर्धटना नहीं हो सकती है , यह विश्वास मैंने निर्माण कर लिया है। तो इसी विश्वास का आभामण्डल मेरे आसपास निर्माण हो गया है। और इसी विश्वास के निर्मित आभामण्डल के कारण मेरी कभी कोई दुर्घटना नहीं हुई है। तो आप भी आपके विचारों को सकारात्मक रूप से बदलकर अपना आभामण्डल बदल सकते हैं। यह आभामण्डल आपके आसपास सदैव अच्छा ही वातावरण रखेगा। अब माँ और बाप को चिंता होती है कि उनके बच्चे सदैव अच्छी संगत में रहें और सदैव बच्चों पर नजर रखना संभव नहीं होता। लेकिन याद रखें , पाप और पुण्य का ज्ञान प्राप्त करके कुछ नहीं होता है। हमारे यहाँ हमारे नाना-नानी , दादा-दादी अपने बच्चों को पाप और पुण्य का खाली ज्ञान देते हैं कि कौन सी बातें पाप हैं और कौन सी बातें पूण्य हैं।लेकिन केवल यह ज्ञान उनको पाप करने से रोक नहीं

प्राण प्रतिष्ठा का महत्त्व

अब हम अगला प्रयोग करने जा रहे हैं। हमारे भारत में मूर्ति पूजा का चलन है और मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का महत्त्व है। ये प्राण प्रतिष्ठा क्या होती है और वह करने से क्या बदलाव आता है, हम अब वह प्रयोग करेंगे। मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करते समय कोई संत या कोई गुरु अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को उस मूर्ति में प्रवाहित कर देता है और बाद में मूर्ति प्रकृति से समरसता स्थापित कर अपनी ऊर्जा शक्ति को बड़ा लेती है। और इस प्रकार की प्राण प्रतिष्ठा आज से १००-१५० साल पहले तक होती थी , लेकिन धीरे-धीरे प्राण प्रतिष्ठा करने वाले माध्यम कम हो जाने से यह पद्धति कम हो गई। अब प्राण प्रतिष्ठा कैसे होती है प्रथम यह समझ लो , फिर हम आगे बढ़ेंगे भाग - ६- २९९

नीम - प्रेरक प्रसंग

एक समय की बात है  : एक  हरा - भरा गाँव था  | वहाँ कई तरह के वृक्ष थे | बरगद , पीपल , नीम, जामुन , आम , गुलमहोर जैसे वृक्षों से ग्रामपरिसर की हरितकांति को चार चाँद लग गए थे |          गाँव लोग बरगद तथा पीपल के वृक्ष की पूजा करते थे | ग्रीष्मऋतु  में बच्चे आम तथा जामुन का आनंद लेते | इसी ऋतु  में अमलतास अपने सारे पर्ण गिराकर अंगूर के गुच्छों जैसे पीले पुष्पों  से लग जाता  था | लाल - केसरी पुष्पों से पुष्पित गुलमोहर गाँव की शोभा को और मनोहारी बना देता था  |                    सभी वृक्षों  को देखकर नीम अक्सर ऐसा लगता - ग्रामवासी  सभी वृक्षों को पसंद करते हैं  , किन्तु  मैं कजला हूं इसलिए  मुझे कोई पसंद नहीं  करता | उसने ईश्वर  से प्रार्थना  की , " हे परमेश्वर  ! कृपया मेरे पते मीठा कर दो "  | ईश्वर  ने  नीम के पते मीठा कर दिए | दूसरे दिन पक्षी  तथा चींटियो ने नीम के सभी पते खा लिए | नीम फिर दु:खी हो गया | उसने फिर प्राथँना की , " भगवान  ! कृपया मेरे  पते सोने के कर दो ताकि पक्षी  - चूडियाँ मुझे न खा सके "| ईश्वर  ने यह प्रार्थना  सपन ली |                अगली सुबह ग्र

करुणा  की  भावना  की  लहर 

शिष्य  को  अपने  गुरु  के  करुणा  के  भाव  को  पकड़ना  होगा । यह  करुणा  की  भावना  की  लहर  जब  आती  हैं , तब  अपने  भीतर  के  अस्तित्व  को  समाप्त  करना  होगा । क्यों  की  जब  तक  अपना  अलग  अस्तित्व  होगा , तब  तक  उस  करुणा  की  लहर  से  एकरूपता   स्थापित  नहीं   हो  सकती  हैं । आत्मा  को  अपने  बूंद  के  अस्तित्व  को भुलाकर  अपना  अस्तित्व  सागर  में  समाहित  करना  होगा । यह  शिष्य  को  स्वयं  ही  करना  होता  हैं । वह  कार्य  एकदम  निजी  हैं । वह  प्रत्येक  का  प्रत्येक  को  स्वयं  ही  करना  होता  हैं । 🔰 ही .का .स .योग - -१--

प्रेरक प्रसंग

एक समय की बात है  : एक  हरा - भरा गाँव था  | वहाँ कई तरह के वृक्ष थे | बरगद , पीपल , नीम, जामुन , आम , गुलमहोर जैसे वृक्षों से ग्रामपरिसर की हरितकांति को चार चाँद लग गए थे |          गाँव लोग बरगद तथा पीपल के वृक्ष की पूजा करते थे | ग्रीष्मऋतु  में बच्चे आम तथा जामुन का आनंद लेते | इसी ऋतु  में अमलतास अपने सारे पर्ण गिराकर अंगूर के गुच्छों जैसे पीले पुष्पों  से लग जाता  था | लाल - केसरी पुष्पों से पुष्पित गुलमोहर गाँव की शोभा को और मनोहारी बना देता था  |                    सभी वृक्षों  को देखकर नीम अक्सर ऐसा लगता - ग्रामवासी  सभी वृक्षों को पसंद करते हैं  , किन्तु  मैं कजला हूं इसलिए  मुझे कोई पसंद नहीं  करता | उसने ईश्वर  से प्रार्थना  की , " हे परमेश्वर  ! कृपया मेरे पते मीठा कर दो "  | ईश्वर  ने  नीम के पते मीठा कर दिए | दूसरे दिन पक्षी  तथा चींटियो ने नीम के सभी पते खा लिए | नीम फिर दु:खी हो गया | उसने फिर प्राथँना की , " भगवान  ! कृपया मेरे  पते सोने के कर दो ताकि पक्षी  - चूडियाँ मुझे न खा सके "| ईश्वर  ने यह प्रार्थना  सपन ली |                अगली सुबह ग्

समर्पण ध्यानयोग प्रार्थनाधाम नवसारी २४घंटे उपलब्ध

जीवन समस्या तथा उपलब्धियों का मिश्रण होता है। 'समर्पण ध्यानयोग प्रार्थनाधाम' समस्या के समाधान हेतु प्रार्थना सेवा प्रदान करता है। इस सेवा का लाभ विश्व का कोई भी व्यक्ति स्वयं के लिए , मित्र , परिवार या किसी के लिए भी ले सकता है। *इसका श्रेष्ठ लाभ लेने हेतू समर्पण भाव से केवल एक बार प्रार्थना लिखवाएँ।* प्रार्थना हेतू कृपया निम्नलिखित जानकारी अवश्य दें:- (१) आपका नाम: (२) शहर/गाँव (३) आपका ई-मेल: (४) जिनके लिए प्रार्थना करवाई जा रही है उनका नाम , उम्र , स्थान(शहर/गाँव) (५)आपकी/उनकी समस्या: *आपकी प्रार्थना दर्ज करने हेतू , कृपया लॉग ऑन करें :* *www.samarpanmeditation.org* *आपत्कालीन प्रार्थना हेतु , कृपया संपर्क करें: (+91) 9574651555* *( ई-मेल: prarthana.dham@gmail.com )* *मधुचैतन्य जुलाई २०१८* *॥जय बाबा स्वामी॥*

हमारी संस्कृति में गुरु को परमात्मा का दर्जा

हमारी संस्कृति में गुरु को परमात्मा का दर्जा दिया गया है और गुरु साक्षात्  परब्रह्म कहा है। यह इसीलिए कहा है क्योंकि परमात्मा मानना मनुष्य की गुण ग्रहण करने की सर्वोत्तम स्थिति है। आप किसी भी पत्थर को भी परमात्मा मानो तो आपके ऊपर दो प्रभाव निर्माण हो जाएँगे - एक तो आपकी गुण ग्रहण करने की क्षमता १००% हो जाएगी और दूसरा ओर , आप आपके दोष संपूर्ण विसर्जित कर पाएँगे। और वह माध्यम अगर पास का है , जीवंत है तो वह स्वयं भी एक वेक्यूम क्लीनर जैसा आपके भीतर से सारे दोष खिंच लेगा। दूसरा , जब हम अपने गुरु को ही परमात्मा मानते हैं तो हम समर्पण भाव से उससे एकरूप हो जाते हैं। और फिर उसके भीतर का ज्ञान , उसके भीतर की शक्तियाँ स्वयं ही हमारे भीतर आना प्रारंभ हो जाती हैं। हिमालय में यही प्रक्रिया से सभी ऋषि ,मुनि ज्ञान ग्रहण करते रहते हैं। कोई किसी को सिखाता नहीं है। यह सब सीखने और सिखाने की प्रक्रिया शारीरिक स्तर की है। ऐसा कुछ भी होता नहीं है फिर भी ज्ञान एक से दूसरे में केवल भाव के कारण ही चला आता है। आत्मा का भाव ही इतना सशक्त होता है कि सरा ज्ञान वही ले आता है।आज जिनको यह दूसरा वाला पानी पीकर ध्यान ल

चक्र का संबंध आपके चित्त के साथ

इस चक्र का संबंध आपके चित्त के साथ है। आपका चित्त जितना बाहर की ओर होगा उतना ही वह कमजोर होगा। और चित्त कमजोर हो जाने पर शरीर में एक आसंतुलन की स्थिति भी निर्माण हो जाएगी। यह चक्र खराब होने से पेट की बीमारियाँ होती हैं। बच्चा न होना भी इस चक्र का दोष होता है। इसको अलग-अलग उदाहरणों से समझाया। भाग - ६ -२१३

ध्यान करो

मैं आपको जो बोल रहा हूँ न , ध्यान करो , ध्यान करो , ध्यान करो ....क्यों बोल रहा हूँ? इसलिए बोल रहा हूँ कि अगर ध्यान करोगे तो आपके पूर्वजों के सात पीढियों तक , मेरे शब्दों को समझ लो थोड़ा  पहले; आप अगर ध्यान करोगे न , आपके सात पीढियों के पहले तक जितने अच्छे गुण आपके पूर्वजों के होगे वो सब गुण आप के अंदर विकसित होंगे। आपके अंदर सारे अच्छे गुण विकसित होंगे। और अगली सात पीढियों तक आपके गुण आप अगली पीढियों को दोगे। यानी, आप एक पूल का काम करोगे। जो पहले के पूर्वज हैं तुम्हारे उनके अच्छे गुण तुम्हारे अंदर धीरे-धीरे , धीरे-धीरे विकसित होंगे। क्योंकि तुम्हारे अंदर हैं वो। लेकिन सुप्त अवस्था में हैं। उसको जागृत नहीं कर रहे हैं। तुम उसको उसका वातावरण नहीं दे रहे हो। वातावरण दोगे , बराबर (गुण विकसित) होंगे। और उसके बाद में , अगली सात पीढियों तक , अगली तुम्हारी सात पुश्तों में एक अच्छी स्थिति प्राप्त होगी। एक आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त होगी। एक आध्यात्मिक प्रोग्रेस होगा। तो तुम देखो न , तुम्हारी नस्ल  सुधार रहे हो। अगर ध्यान कर रहे हो न , तुम तुम्हारे ऊपर उपकार नहीं कर रहे हो। अगली पीढियों तक उपका

समर्पण ध्यानयोग

यह  एक  "आत्मसंगत" की   साधना  हैं , यह  जीवन  में  धीरे -धीरे  रंग  लाती  हैं । एक  आधा  घंटा  एकांत  में  ऐसे  बैठो  की  आपकी  १५-२० फीट  में  अन्य  कोई  भी  मनुष्य  न  हो । यह  आधे  घण्टे  का  "एकांत" औऱ  "मौन" आपका  सारा  जीवन  ही  बदल  देगा । बाबा स्वामी सदगूरू  के  हृदय  से.         
कमजोर , छोटे लोगों का संगठन अधिक मजबूत होता है क्योंकि उनमें 'मैं' नहीं होता और वे जानते हैं कि संगठित प्रयास उनकी आवश्यकता है। हि.का स. यो. १/३३९

परमात्मामय शरीर का सानिध्य तो छोड़ो

परमात्मामय   शरीर   का   सानिध्य   तो   छोड़ो , शरीर   का  दर्शन   भी   किसी   को   मिल   जाए   तो   उस   दर्शनमात्र   से   भी   इतनी  ऊर्जा   पाती   हैं   की  वह  मोक्ष   का   मार्ग   पता   लगा   सके । एक   दर्शन  से  ही  घटना   घटित   हो   जाती   हैं । ऐसे   परमात्मामय   शरीर   के   दर्शन   केवल   पुण्यात्माएं   ही   कर   सकती   हैं । उनके   सामने   केवल   पुण्यात्माएं   ही   आ   सकती   हैं । इसीलिए   गुरु   को  सदैव   अनुभव   करना   चाहिए । तो   अनुभव   सदैव   एक -सा   ही   रहेगा । अनुभव   एक   ही   होगा   क्योंकि   सदैव   परमात्मा   के   चैतन्य   का   प्रवाह   ही   बहते   रहता   हैं । ऐसे   गुरुदेव   का   सानिध्य   मुझे   मेरे   जीवन   में   प्राप्त   हो   गया   था   औऱ   उन्होंने   इस   गूरूतत्व   के   प्रवाह   को ,  तुम्हें   सौंपने   के   लिए ,  मेरे   भीतर   प्रवाहित   किया   था । ... 🔰ही .का .स .योग .१ 🙏जय बाबा स्वामी 🙏

आशीर्वचन

आज भी प्रत्येक साधक की नस -नस को जानता हूँ , फिर भी मुझे कुछ ज्ञान नहीं हैं यही प्रदर्शन करता हूँ । अन्यथा मेरे सामने  कोई साधक ही नहीं आएगा । क्योंकि साधक कितने ही बुरे हो , मैंने उन्हें अपनाया हैं । वह मेरे हैं , जैसे भी हैं । औऱ मुझे उन्हें लेकर चलना हैं । एक अंश के रूप में मैं प्रत्येक साधक के भीतर ही बैठा हूँ । वह अंश उस साधक की प्रत्येक खबर देते रहता हैं , यह बात साधक नहीं जानते हैं । जिस दिन आत्मसाक्षात्कार उन्होंने प्राप्त किया , उसी दिन से यह अंतरंग संबंध स्थापित हो गया हैं । मुझे लगता हैं , "ध्यान "का  प्रदर्शन साधकों ने समाज में नहीं करना चाहिए औऱ "मैं साधक हूँ "यह अहंकार भी बिल्कुल नहीं करना चाहिए । यह दोनों बातें आसपास के लोगों का नकारात्मक चित्त आपके ऊपर लाती हैं । आप आपके परिवार में भी ध्यान करो तो चुपचाप करो । आपके ध्यान से दूसरे को तकलीफ नहीं होनी चाहिए । ध्यान को छुपाने का भी नहीं हैं , लेकिन सामने वाला पूछे नहीं तब तक बताने का भी नहीं हैं । आप सभी को खूब -खूब आशीर्वाद ! ✍आपका बाबा स्वामी [मधुचैतन्य.न.दी.२०१७]

समपॅण आश्रम

आश्रम तो आज से 20 साल पूवॅ ही एक राजा अपने 50 किलोमीटर में फैले टी गाडॅन में बनाने को तैयार था, लेकिन वह आश्रम तो बनता पर सामूहिकता में नहीं बनता। आश्रम सामूहिकता में निमाॅण हो, यही प्रभु से प्राथॅना है। अगर आश्रम को 1 लाख रू. की आवश्यकता है, तो एक व्यक्ति से 1 लाख रू. स्वीकार करने से अच्छा है 1रू. 1 लाख साधकों से स्वीकार किया जाए, यह समपॅण आश्रम की पवित्र स्थली के निमाॅण के कायॅ में परमात्मा प्रत्येक साधक को अपना योगदान देने की शक्ति प्रदान करे, इसी शुद्ध इच्छा के साथ नमस्कार। आपका बाबा स्वामी - 2005 जुलाई-अगस्त-सितंबर मधुचैतन्य

गुरुदेव के चरण तो निमित है

गुरुदेव के चरण तो निमित है हमें झुकाने के लिए। हमारा किसी भी स्थान पर झुकना ही अधिक महत्वपूर्ण है। जिसके प्रति हमारे मन में प्रेम होता है, जिसके ऊपर हमारी सम्पूर्ण श्रद्धा होती है, उस स्थान पर झुकना हमारे लिए आसान होता है। “झुकना” अपने अस्तित्व को मिटाने की एक कला है। यह जिसे आ गयी, बस उसका बेड़ा पार। यह लायी नहीं जा सकती है। यह कला है , क़ुदरती है। यह क़ुदरती रूप से ही आती है। बाबा स्वामी HSY 1 pg 110