गुरु का अर्थ
गुरु का अर्थ ही है - जो शरीर में है , पर शरीर 'मैं' नहीं है। ऐसा 'मैं'- विहीन शरीर गुरु होता है। जो शरीर में रहकर गुरुतत्त्व का माध्यम बन गया , वह गुरु है। तो फिर गुरु का शरीर गुरु कैसे बन सकता है? इसलिए गुरुतत्त्व के माध्यम बदलते रहते हैं। और जो बदलते रहते हैं , वे केवल माध्यममात्र हैं और जो नहीं बदलता , वह गुरुतत्त्व है। बिना गुरुतत्त्व के गुरु नहीं हो सकता है , लेकिन बिना गुरु के गुरुतत्त्व होता ही है।
*हिमालय का समर्पण योग १/१९४*
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