नामकरण संस्कार

हमारे प्राचीन समय में नवजात शिशु का 'नामकरण संस्कार' किसी सद्गुरु के द्वारा संपन्न होता था। सद्गुरु उस बच्चे को कोई नाम देते थे और उस नाम देने के बहाने सद्गुरू का चित्त उस बालक पर आता था। और उनके दिए गए नाम के साथ उनका आशीर्वाद होता था जो आशीर्वाद जीवनभर उस बच्चे के साथ रहता था। जब एक अच्छी सामूहिकता का सान्निध्य बच्चे को जन्म से मिल जाए तो वह बच्चा उस अच्छी सामूहिक शक्ति के संगत में , सान्निध्य में ही बड़ा होता था। वह सामूहिकता बच्चे को संतुलित करने में बड़ी सहायक होती थी। इसलिए यह नामकरण का संस्कार बड़ा महत्वपूर्ण संस्कार है।

सद्गुरू उस बच्चे का भविष्य जानता है। और भविष्य में उस बच्चे के जीवन में क्या घटनाएँ  होने वाली हैं , वह भी जानता है। और और उन घटनाओं में से इस बच्चे को संतुलित करने में किन शक्तियों की आवश्यकता है , वह यह सब जानता है । यह सब जानकर ही सद्गुरू उस बच्चे का नामकरण करेगा। सद्गुरू उस बच्चे की आवश्यकता को जानकर उसके व्यक्तित्व को निखारने के लिए आवश्यक तत्व उस बच्चे को प्रदान करता है। उस बच्चे के दिए गए नाम को बड़ा अर्थ होता है। लेकिन वह अर्थ बच्चे के जीवनकाल में समझ में आ सकता है। प्रत्येक नाम के साथ एक अलग सामूहिक शक्ति होती है। और किस बच्चे की क्या आवश्यकता है , वह यह सब जानता है और उस बच्चे की आवश्यकता के अनुसार सद्गुरू उस बच्चे में वे शक्तियाँ जोडता है। उससे वह बच्चा अपने जीवन में संतुलित जीवनयापन करते हुए एक संतुलित व सफल व्यक्ति बनता है।

हिमालय का समर्पण योग १/२६९

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