हमारी संस्कृति में गुरु को परमात्मा का दर्जा
हमारी संस्कृति में गुरु को परमात्मा का दर्जा दिया गया है और गुरु साक्षात् परब्रह्म कहा है। यह इसीलिए कहा है क्योंकि परमात्मा मानना मनुष्य की गुण ग्रहण करने की सर्वोत्तम स्थिति है। आप किसी भी पत्थर को भी परमात्मा मानो तो आपके ऊपर दो प्रभाव निर्माण हो जाएँगे - एक तो आपकी गुण ग्रहण करने की क्षमता १००% हो जाएगी और दूसरा ओर , आप आपके दोष संपूर्ण विसर्जित कर पाएँगे। और वह माध्यम अगर पास का है , जीवंत है तो वह स्वयं भी एक वेक्यूम क्लीनर जैसा आपके भीतर से सारे दोष खिंच लेगा। दूसरा , जब हम अपने गुरु को ही परमात्मा मानते हैं तो हम समर्पण भाव से उससे एकरूप हो जाते हैं। और फिर उसके भीतर का ज्ञान , उसके भीतर की शक्तियाँ स्वयं ही हमारे भीतर आना प्रारंभ हो जाती हैं। हिमालय में यही प्रक्रिया से सभी ऋषि ,मुनि ज्ञान ग्रहण करते रहते हैं। कोई किसी को सिखाता नहीं है। यह सब सीखने और सिखाने की प्रक्रिया शारीरिक स्तर की है। ऐसा कुछ भी होता नहीं है फिर भी ज्ञान एक से दूसरे में केवल भाव के कारण ही चला आता है। आत्मा का भाव ही इतना सशक्त होता है कि सरा ज्ञान वही ले आता है।आज जिनको यह दूसरा वाला पानी पीकर ध्यान लग गया था। यह भी भाव से मुझसे जुड़ने के कारण हुआ। जब आप माध्यम के साथ समरसता स्थापित कर लेते हैं तो माध्यम और आप के बीच भाव एक पुल का कार्य करता है। तो भाव के कारण ही माध्यम की जो स्थिति थी , वह उनको भी भाव के कारण प्राप्त हो गई। आध्यात्मिक जगत् में प्रगति के लिए आत्मा की शुद्धता और आत्मा का भाव इन दोनों का बड़ा महत्त्व है। और सभी प्राकृतिक चिकित्सा में भी भाव का ही महत्त्व है यह ध्यान की पद्धति भी प्रकूति पर ही आधारित है। तो इस प्रकार से , एक ही स्तर पर के पानी के प्रभाव चार प्रकार से अलग-अलग अनुभव किए गए ।
भाग - ६ -२९८/२९९
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