मूर्ति में प्राण

अब बाद में उस मूर्ति को जो मूर्तिकार निर्मित करे वह मूर्तिकार भी आत्मसाक्षात्कारी होना चाहिए। यानी बनाने वाला मनुष्य भी आत्मज्ञानी होना चाहिए। वह चैतन्य पूर्ण होगा तो ही वह मूर्ति को कलात्मक, सही रूप प्रदान कर सकता है। यह भी उतना आवश्यक होता है और इसके बाद होता है ऐसा अधिकारी पुरूष जो मूर्ति में प्राण डाल सके। अर्थात मूर्तिकार मूर्ति को रूप प्रदान करता है तथा अधिकार पुरूष उसे चैतन्य स्वरूप प्रदान करता है। लेकिन अब ऐसे प्राणवान माध्यम ही कम रह गए हैं, जो मूर्ति में प्राण डाल सकें।

भाग - ६ -३००

Comments

Popular posts from this blog

Subtle Body (Sukshma Sharir) of Sadguru Shree Shivkrupanand Swami

सहस्त्रार पर कुण्डलिनी